(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें विवेकका आदर करनेके
लिये चिन्तन-मनन अथवा अभ्यास करनेकी जरूरत ही नहीं है, प्रत्युत गलत मान्यताको मिटाकर वास्तविक
बातकी स्वीकृति करनेमात्रकी जरूरत है । अभ्यास करणोंसे होता है और स्वीकृति स्वयंसे होती है
। अभ्याससे तत्त्वबोध
कभी हुआ नहीं, होगा नहीं, होना सम्भव ही नहीं । कारण कि अभ्याससे एक नयी अवस्था बनती
है तथा परिच्छिन्नता और दृढ़ होती है, फिर उससे अवस्थातीत तथा अपरिच्छिन्न तत्त्वकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तात्पर्य
है कि केवल गलत मान्यताका निषेध करना है, अभ्यास नहीं करना है ।
करणसापेक्ष साधनमें भी विवेक रहता है
और करण-निरपेक्ष साधनमें भी करण रहता है । परन्तु करणसापेक्ष साधनमें करण (क्रिया)
की प्रधानता रहती है तथा करणनिरपेक्ष साधनमें विवेककी प्रधानता रहती है ।
करणसापेक्ष साधनकी महिमा भी विवेकके
कारण ही है, करणके कारण नहीं । विवेकके बिना करण
अन्धा है । अगर करणके साथ विवेक न हो तो करणसापेक्ष साधन चलेगा ही नहीं । इसीलिये साधनको ‘करणरहित’ न कहकर ‘करणसापेक्ष’ अथवा ‘करणनिरपेक्ष’ कहा गया है । अगर
करणसापेक्ष साधनमेंसे विवेक निकाल दिया जाय तो जडता आ जायगी अर्थात् साधन बनेगा ही
नहीं और करणनिरपेक्ष साधनमेंसे करण निकाल दिया जाय तो चिन्मयता आ जायगी अर्थात् बोध
हो जायगा, साधन सिद्ध हो जायगा । विवेकके बिना
करण जड पत्थर है और करणके बिना विवेक बोध है । चिन्मयता (बोध) की प्राप्तिमें जडकी
मानी हुई सत्ता ही बाधक है ।
विवेक आधा सत् और आधा असत् है अर्थात्
विवेकमें सत्-असत् दोनों हैं, पर करण पूरा असत् ही है ! विवेकमें
सत्-असत् दोनों रहनेसे असत् तो छूट जायगा और सत् रह जायगा । अतः विवेकमें तो ग्राह्य
(सत्) और त्याज्य (असत्) दोनों अंश रहते हैं, पर करणमें केवल त्याज्य अंश (असत्) ही रहता है । अतः विवेक तो बोधमें परिणत होता
है और करणका सम्बन्ध-विच्छेद होता है, जो कि पहलेसे ही है । तात्पर्य यह हुआ कि विवेकमें जडके त्यागकी सामर्थ्य है, पर करणमें जडके त्यागकी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि करण खुद जड ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे
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