(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं अभिमानसे नहीं कहता हूँ, प्रत्युत
मैंने जैसा सुना है, समझा है, वैसा
कहता हूँ कि हिन्दू-संस्कृतिने जीवके उद्धारके लिये जितना उद्योग किया है, इतना
दूसरी किसी संस्कृतिने नहीं किया है । ईसाई, मुसलमान, यहूदी, बौद्ध, पारसी
आदि किस सम्प्रदायने जीवोंके कल्याणके लिये उद्योग किया है ? कौन-सा
सम्प्रदाय केवल जीवोंके कल्याणके लिये बना है ? आप
खुद देख लें । वे अपनी संख्या
बढ़ानेका, अपने मतका प्रचार करनेका उद्योग तो करते हैं,
पर जीवमात्रके कल्याणका उद्योग नहीं करते । जो संस्कृति केवल
जीवोंके कल्याणके लिये ही है, उसमें किसी जीवको न आने देना,
उसको पहलेसे ही रोक देना,
नष्ट कर देना कितना भयंकर पाप है ! आश्चर्यकी बात है कि इस पापको आज सामाजिक सभ्यता माना जा रहा है ! इसका यही अर्थ
हुआ कि जल्दी-से-जल्दी नरकोंमें जाना है, भयंकर-से-भयंकर
नरक भोगना है, अगर नरकोंमें जानेसे आड़ लग गयी तो गजब हो जायगा !
विचार करें, किसीकी भी उन्नति रोक देना क्या पुण्य है ?
कोई धनी होना चाहे तो धनी नहीं होने देंगे,
धर्मात्मा होना चाहे तो धर्मात्मा नहीं होने देंगे,
कल्याण करना चाहे तो कल्याण नहीं होने देंगे,
शरीरसे हृष्ट-पुष्ट होना चाहे तो हृष्ट-पुष्ट नहीं होने देंगे,
क्या यह पुण्य है ?
अपनी थोड़ी सुख-सुविधाके लिये दूसरे जीवोंका नाश कर
देना; जो भगवत्प्राप्तिके मार्गमें जा सकते थे, उनको
जन्म नहीं लेने देना कितने भारी अन्याय-अत्याचारकी बात है ! जान-जानकर घोर पाप मत करो
अन्नदाता ! इतनी तो कृपा रखो । आपके घरोंका बालक हूँ, आपसे
ही पला हूँ, अभी भी आपसे ही निर्वाह होता है । आप सब माँ-बाप
हो ! थोड़ी कृपा करो कि ऐसा घोर पाप मत करो । पाराशरस्मृतिमें आया है‒
यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने ।
प्रायश्चित्त न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते ॥
(४ । २०)
‘ब्रह्महत्यासे जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करनेसे लगता है । इस गर्भपातरूपी महापापका कोई प्रायश्चित्त
नहीं है, इसमें तो उस स्त्रीका त्याग कर देनेका, उसको अपनी
स्त्री न माननेका ही विधान है ।’
अगर कम सन्तान ही चाहते हो तो ब्रह्मचर्यका पालन
करो । उसका हम अनुमोदन करेंगे । आप ब्रह्मचर्यका पालन करो तो आपको पाप नहीं लगेगा, प्रत्युत
शरीर नीरोग होगा, हृष्ट-पुष्ट होगा । परन्तु शरीरका नाश करना और सन्तान
पैदा नहीं करना‒यह कितनी लज्जाकी, कितने दुःखकी बात है !
श्रूयतां धर्मसर्वस्यं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
धर्मसर्वस्व सुनो और सुनकर धारण कर लो । जो आचरण
अपनेसे प्रतिकूल हो, उसको दूसरोंके प्रति मत करो । कोई आपकी उन्नति रोक दे,
आपका जन्म रोक दे, आपका बढ़ना रोक दे, आपका पढ़ना रोक दे, आपका भजन-ध्यान रोक दे,
आपके इष्टकी प्राप्ति रोक दे तो उसको पाप लगेगा कि पुण्य लगेगा
? जरा सोचें । कोई जीव मनुष्यजन्ममें आ रहा है,
उसमें रुकावट डाल देना,
उसको जन्म ही नहीं लेने देना कितने बड़े पापकी बात है ! हाँ, आप ब्रह्मचर्यका पालन करो तो आपका शरीर भी ठीक रहेगा और पाप
भी नहीं लगेगा । परन्तु भोग तो भोगेंगे शरीरका नाश तो करेंगे, पर
सन्तान पैदा नहीं होने देंगे‒यह बड़े भयंकर पतनकी बात है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘मातृशक्तिका घोर अपमान’ पुस्तकसे
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