(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्तिमें परिपूर्ण है ।
अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा
नहीं, अपितु जडताके त्यागसे होती
है ।
मनुष्य यदि अपने ही अनुभवका आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति
हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिकी अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील
तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओंको जाननेवाला अपरिवर्तनशील
तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओंको जाननेवाला अवस्थाओंसे अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता
? ये अवस्थाएँ ‘अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और ‘अहम्’ सत्यतत्त्वपर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्वके सिवा अन्य किसी
भी अवस्था आदिकी और माने हुए ‘अहम्’ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओंसे तथा
‘अहम्’ से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करनेपर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान
प्राप्त हो जानेपर ‘अहम्’ और ‘अहम्’ की अवस्थाओंकी स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं
रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी कालमें कोई स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार ‘अहम्’ और अवस्थाओंमें एक भगवत्तत्त्वकी सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष
रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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