जैसे हम कहते हैं कि यह शरीर है, यह हाथ है, यह पैर है, यह पेट है; यह मकान है, यह दीवार है, यह खम्भा है; यह मनुष्य है, यह पशु है, यह वृक्ष है, तो ऐसा कहनेका अर्थ होता है कि हम अलग हैं और ये अलग हैं
। यह मकान है तो मैं मकान नहीं हो सकता । इसी तरह यह अहंकार है तो मैं (स्वयं) अहंकार
नहीं हो सकता । इस प्रकार अहंताको इदंतासे देखें । यह बहुत ऊँचे दर्जेकी वास्तविक और
अकाट्य बात है, और जिससे तत्काल तत्त्वबोध हो जाय‒ऐसी
बात है !
अहम् दृश्य है और जाननेमें
आता है । जैसे सूर्यका प्रकाश व्यापक होता है और उसके अन्तर्गत वस्तुएँ दीखती हैं, ऐसे ही एक व्यापक ज्ञानके अन्तर्गत अहम् दीखता है । जैसे
आकाशमें अनेक तारोंके होनेपर भी आकाशका विभाग नहीं होता । एक आकाशके अन्तर्गत ही अनन्त
तारे दीखते हैं । ऐसे ही एक ज्ञानके अन्तर्गत ही अनन्त अहंकार (मैंपन) दीखते हैं ।
जैसे सब-के-सब तारे एक आकाशमें हैं, ऐसे सब-के-सब अहंकार एक ज्ञानमें हैं । वह ज्ञान हमारा
स्वरूप है । अहम् हमारा स्वरूप नहीं है । अहम्को अपना स्वरूप मान लिया‒यही गलती हुई
है । स्वरूप तो अहम्को प्रकाशित करनेवाला है । जैसे, हम आँखसे सब वस्तुओंको देख सकते हैं, पर आँखसे आँखको नहीं देख सकते क्योंकि जिससे सब दीखता
है, वही आँख है । ऐसे ही जिससे ‘मैंपन’ दीखता है, वही तत्त्व है । तात्पर्य है कि ‘मैंपन’ इदंतासे दीखता है, पर ‘मैंपन’ को देखनेवाला तत्त्व (ज्ञान) इदंतासे
नहीं दीखता ।
जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाएँ जाननेमें आनेवाली (प्रकाश्य) हैं । जाग्रत् और स्वप्नमें
तो अहम् रहता है, पर सुषुप्तिमें अहम् नहीं रहता, प्रत्युत अविद्यामें लीन हो जाता है । वह सुषुप्ति भी
जाननेमें आती है अर्थात् ‘ऐसी गहरी नींद आयी
कि कुछ पता नहीं था’‒यह भी एक ज्ञानके अन्तर्गत दीखता है
। वह ज्ञान मात्र प्रतीतिका प्रकाशक, आश्रय और आधार है । तात्पर्य है कि
प्रकाशित होनेवाली वस्तु हमारा स्वरूप नहीं है । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाएँ अलग-अलग हैं, पर उनको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान अलग-अलग नहीं है । ऐसे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय; आदि, मध्य और अन्त; भूत, भविष्य और वर्तमान आदि सब-के-सब एक ज्ञानके अन्तर्गत ही
प्रकाशित होते हैं । ये सब तो उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर इनका जो आश्रय है, आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, वह ज्ञान उत्पन्न और नष्ट नहीं होता, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों रहता है । अहम् निरन्तर नहीं रहता, पर उसको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान निरन्तर रहता है । उस
ज्ञानकी दृष्टिसे अहम् भी इदम् ही है ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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