(गत ब्लॉगसे आगेका)
जितने भी परिवर्तन होते हैं, सब उस ज्ञानके अन्तर्गत ही होते हैं । वह ज्ञान कहीं आता-जाता
नहीं, प्रत्युत ज्यों- का-त्यों अटल रहता है‒
‘कूटस्थमचलं ध्रुवम्' (गीता १२ । ३)
‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’
(गीता २ । २४)
जैसे, प्रकाशके अन्तर्गत आदमी आते-जाते हैं, पर प्रकाश आता-जाता नहीं । सब आ जायँ तो प्रकाश रहता है
सब चले जायँ तो प्रकाश रहता है; थोड़े आ जायँ तो प्रकाश रहता है, कोई न आये तो प्रकाश रहता है । प्रकाशमें न कोई बाधा लगती
है, न कोई हानि होती है, न कमी होती है, न वृद्धि होती है, न परिवर्तन होता है ! संसारमें कभी अनुकूलता आती है, कभी प्रतिकूलता आती है; कभी सुख होता है, कभी दुःख होता है; कभी ठीक होता है, कभी बेठीक होता है; कभी नफा होता है, कभी नुकसान होता है; कभी संयोग होता है, कभी वियोग होता है; कभी जन्म होता है, कभी मरण होता है; कभी रोग होता है, कभी नीरोगता होती है‒ये सब तो अलग-अलग होते हैं, पर जिसके अन्तर्गत ये सब होते हैं, उस ज्ञानमें क्या फर्क पड़ता है ? वह ज्ञान ज्यों-का-त्यों रहता है । उस ज्ञानका नाम ही
आत्मा है और वही परमात्मतत्व है । उस ज्ञानके अन्तर्गत ही अहंता (मैंपन) है । इस प्रकार
अहंताको इदंतासे देखें तो जीवन्मुक्ति स्वतःसिद्ध है !
प्रश्न‒अहम्को अपनेसे अलग, स्पष्टरूपसे कैसे देखें ?
उत्तर‒यह विचार
करें कि हमें अहम्का जो भान होता है कि ‘मैं हूँ’, यह एक देशमें
होता है या सर्वदेशमें ? प्रत्येक व्यक्तिको अलग-अलग
अपने अहम्का भान होता है; अतः अहम्का भान एक देशमें होता है । मैं, तू, यह और वह‒इन चारोंका एक-एक देशमें
भान होता है । चारोंका भान जिस ज्ञानमें होता है वह ज्ञान एक देशमें नहीं है । उस ज्ञानमें
स्थित होकर देखें तो अहम् स्पष्टरूपसे अपनेसे अलग एक देशमें (इदंतासे) दीखेगा । अगर स्पष्टरूपसे
न दीखे तो विवेककी जागृति नहीं हुई है । विवेककी जागृति न होनेका कारण है‒विवेकका आदर न करना, उसको महत्व न देना । अनादिकालसे
हम ‘मैंपन’ को अपना
स्वरूप मानकर देखते आये हैं, इसलिये
अपनेसे अलग स्पष्टरूपसे ‘मैंपन’ दीखनेमें
कठिनता होती है । अगर अपने विवेकको महत्त्व दें तो यह स्पष्टरूपसे अपनेसे अलग दीखने
लग जायगा । अहम् स्पष्टरूपसे दीखे अथवा अस्पष्टरूपसे दीखे, है तो दीखनेवाला (दृश्य) ही‒यह निःसन्देह
बात है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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