(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक कुत्ता घरके आगे बैठा है । दूसरा
कुत्ता वहाँ आता है तो उसको देखकर वह गुर्राता है‒‘कुत्ता देख कुत्ता गुर्राया, मैं बैठा तू क्यों आया ?’ यह उस कुत्तेका अहंकार है । जो अहंकार उस कुत्तेमें है
और जो अहंकार हमारेमें है, उसमें कोई फर्क नहीं है । अहंकार दोनोंमें
वैसा-का-वैसा ही है । अतः जैसे कुत्तेका अहंकार इदंतासे दीखता है, ऐसे ही अपनेमें भी इदंतासे अहंकार दीखना चाहिये ।
जाग्रत् और स्वप्नमें ‘मैंपन’ दीखता है और सुषुप्तिमें ‘मैंपन’ नहीं दीखता‒इस प्रकार ‘मैंपन’ का भाव और अभाव दोनों हमारे जाननेमें
(देखनेमें) आते हैं । जिसको ‘मैंपन’ के भाव और अभावका ज्ञान होता है, उस नित्य तथा चिन्मय तत्त्वका कभी अभाव नहीं होता और उसमें
‘मैंपन’ भी कभी नहीं होता । इस बातकी ओर विशेष लक्ष्य करानेके लिये भगवान् कहते हैं‒
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ
इति तद्विदः ॥
(गीता
१३ । १)
‘हे कौन्तेय ! यह-रूपसे कहे जानेवाले शरीरको क्षेत्र (अपरा प्रकृति)
कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानिजन क्षेत्रज्ञ (परा प्रकृति)
नामसे कहते हैं ।’
‒इस श्लोकके पूर्वार्धमें शरीरके लिये ‘इदम्’ शब्द और उत्तरार्धमें ‘एतत्’ शब्द आया है । व्याकरणकी दृष्टिसे ‘इदम्’ और ‘एतत्’ में अन्तर है । ‘इदम्’ अंगुलिनिर्देशमें प्रयुक्त होता है । ‘इदम्’ की अपेक्षा भी ज्यादा नजदीकको ‘एतत्’ कहते हैं । अतः यहाँ ‘इदम्’ शब्द शरीरके लिये और ‘एतत्’ शब्द अहम्के लिये मानना चाहिये; क्योंकि शरीरमें भी अहम् ज्यादा नजदीक है । इस अहम्को
भी जो जानता है, वह क्षेत्रज्ञ है । इस क्षेत्रज्ञकी
परमात्माके साथ अभिन्नता है‒‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि
सर्वक्षेत्रेषु भारत’ (गीता १३ । २) ।
क्षेत्रका स्वरूप क्या है ? इसे भगवान्
बताते हैं‒
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः
॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना
धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन
सविकारमुदाहृतम् ॥
(गीता १३ । ५-६)
‘मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत, दस इन्द्रियाँ, मन और इन्द्रियोंके
पाँच विषय‒यह चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र है । इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राणशक्ति) और धृति‒ये क्षेत्रके
सात विकार हैं[1] । इस प्रकार विकारोंसहित यह क्षेत्र
संक्षेपसे कहा गया है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
[1] परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर ‘इच्छा’ और ‘द्वेष’ सर्वथा मिट जाते हैं । ‘सुख’ और ‘दुःख’ अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका ज्ञान तो होता
है, पर उससे कोई विकार पैदा नहीं होता । प्रारब्धके अनुसार
‘संघात’ (शरीर) रहता है, पर उससे मैं-मेरापनका कोई सम्बन्ध नहीं
रहता । अन्तःकरणसे तादात्म्य न रहनेसे ‘चेतना’ और ‘धृति’-रूप विकारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता
।
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