संसारकी उत्पत्ति तथा प्रतीति होती
है । परमात्मतत्त्व उत्पत्तिका आश्रय तथा प्रतीतिका प्रकाशक है । वह सत्तारूपसे उत्पत्तिको
आश्रय देता है तथा चेतनरूपसे प्रतीतिको प्रकाश अर्थात् सत्ता-स्कूर्ति देता है । उत्पत्ति
निरन्तर विनाशमें तथा प्रतीति निरन्तर अभावमें जा रही है । परन्तु उनका आश्रय तथा प्रकाशक
नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । उत्पत्ति तथा प्रतीतिमें
राग होनेके कारण ही उनके आश्रय तथा प्रकाशकका अनुभव नहीं होता; क्योंकि राग होनेसे उत्पत्ति तथा प्रतीतिसे
आगे दृष्टि जाती ही नहीं !
उत्पन्न होनेवाला अपने आश्रयको और प्रतीत
होनेवाला अपने प्रकाशकको नहीं जान सकता; क्योंकि जन्य वस्तु अपने जनकको मान सकती है, पर जान नहीं सकती । अतः उत्पत्तिके आश्रय तथा प्रतीतिके
प्रकाशकको उत्पत्ति तथा प्रतीति (मन-बुद्धि) से सम्बन्ध-विच्छेद करके स्वयंसे ही जाना जा सकता है; क्योंकि स्वयंकी उत्पत्ति तथा प्रतीति नहीं होती । इसलिये
गीतामें आया है‒
‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ (२ । ५५)
‘अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता
है ।’
‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (६ । ५)
‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे ।’
‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि
तुष्यति’
(६ । २०)
‘जब स्वयं अपने-आपमें
अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’
तात्पर्य है कि वह तत्त्व स्वसंवेद्य
है, परसंवेद्य नहीं । मनसे जो चिन्तन किया जाता है, वह मनके विषय (अनात्मा) का ही चिन्तन होता है, परमात्माका नहीं । बुद्धिसे जो निश्रय किया जाता है, वह
बुद्धिके विषयका निश्रय होता है, परमात्माका नहीं । वाणीसे जो वर्णन
किया जाता है, वह वाणीके विषयका ही वर्णन होता है, परमात्माका नहीं । तात्पर्य
है कि मन-बुद्धि-वाणीसे प्रकृतिके कार्यका ही चिन्तन, निश्चय तथा वर्णन किया जाता है । परन्तु
परमात्माकी प्राप्ति मन-बुद्धि-वाणीसे विमुख (सम्बन्ध-विच्छेद) होनेपर ही होती है । उपनिषद्में आया है‒
यद्वाचानभ्युदितं येन
वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते
॥
(केन॰ १ । ४)
‘जो वाणीसे नहीं बोला जाता, प्रत्युत जिससे वाणी बोली जाती है,
उसीको तू ब्रह्म जान । वाणीसे बोलनेमें आनेवाले जिस तत्त्वकी लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है ।’
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो’ पुस्तकसे
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