(गत ब्लॉगसे आगेका)
यन्मनसा न मनुते
येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते
॥
(केन॰ १ । ५)
‘जो मन (अन्तःकरण) से नहीं जाना जाता, प्रत्युत जिससे मन जाना हुआ कहा जाता
है, उसीको तू ब्रह्म जान । मन-बुद्धिसे
जाननेमें आनेवाले जिस तत्त्वकी लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है ।’
प्रकृतिके कार्य मन-बुद्धि-वाणीसे जब
प्रकृतिका भी वर्णन नहीं हो सकता, तो फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वका वर्णन
हो ही कैसे सकता है ? हम प्रकृतिके राज्य (शरीर-संसार) में
बैठे हैं । अतः प्रकृतिके अंश (मन-बुद्धि- इन्द्रियों) से ही हम सत्-तत्त्व (परमात्मा
) का वर्णन करते हैं; परन्तु वह वर्णन वास्तवमें असत्का
ही होता है । सत्का वर्णन तो कभी हुआ नहीं, होगा नहीं, होना सम्भव ही नहीं ! इसलिये उपनिषद्में आया है‒
वाचा वदति यत्किञ्चित्संकल्पैः कल्प्यते
च यत् ।
मनसा चिन्त्यते यद्यत्सर्वं मिथ्या न संशयः
॥
(तेजोबिन्दु॰ ५ । ४५)
‘वाणीसे जो कुछ बोला जाता है, संकल्पोंसे जो कुछ कल्पना की जाती है
तथा मनसे जो कुछ चिन्तन किया जाता है, वह सब-का-सब मिथ्या ही है, इसमें कोई संशय नहीं है ।’
शास्त्रोंमें, सन्तवाणीमें परमात्माका जो वर्णन हुआ है, वह परमात्मतत्त्वका लक्ष्य करानेके लिये ही है । कारण
कि परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता, प्रत्युत शाखाचन्द्र-न्यायसे परमात्माका निर्देश किया जा सकता है । अतः शास्त्र और सन्त शब्दोंसे शब्दातीतका लक्ष्य कराते हैं, वर्णनसे वर्णनातीतका लक्ष्य कराते हैं
। जैसे
लक्ष्यतक बन्दूक नहीं पहुँचती, प्रत्युत गोली पहुँचती है, ऐसे ही परमात्मातक शब्द (वर्णन) नहीं पहुँचता, प्रत्युत परमात्माका उद्देश्य होनेसे साधकका भाव परमात्मातक
पहुँचता है । परन्तु यह दृष्टान्त भी ठीक नहीं बैठता; क्योंकि वास्तवमें साधकका भाव
परमात्मातक नहीं पहुँचता, प्रत्युत केवल उसका भ्रम, वहम-अज्ञान मिटता है, जिससे उसको अपनेमें ही नित्यप्राप्त
परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है । तात्पर्य है कि शब्द परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति
नहीं कराता, प्रत्युत उसकी अप्राप्तिका
वहम मिटाता है ।
शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है । जब मनुष्य
सोता है, तब इन्द्रियों मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्या (अज्ञान) में लीन हो जाती है । परन्तु जब सोये
हुए मनुष्यका नाम लेकर उसको पुकारा जाता है, तब वह जग जाता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो’ पुस्तकसे
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