।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
श्रीगंगासप्तमी
शब्दसे शब्दातीतका लक्ष



(गत ब्लॉगसे आगेका)

अतः शब्दमें इतनी शक्ति है कि वह अविद्यामें लीन हुई श्रवणेन्द्रियतक भी पहुँच जाता है और मनुष्यको जगा देता है[1] !  अन्य इन्द्रियोंमें तो अपने-अपने अपरोक्ष विषयका ज्ञान करानेकी ही शक्ति है, पर श्रवणेन्द्रियमें अपरोक्ष विषयका ज्ञान करानेके साथ-साथ परोक्ष विषयका भी ज्ञान करानेकी शक्ति है । तात्पर्य है कि जिस विषयका हम त्वचासे स्पर्श नहीं कर सकते, नेत्रोंसे देख नहीं सकते, जीभसे चख नहीं सकते और नाकसे सूँघ नहीं सकते, उस विषयको भी हम कानोंसे सुनकर जान सकते हैं । इसलिये सब साधनोंमें श्रवण’ की मुख्यता है । कानोंसे सुनकर ही उसके अनुसार कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगका अनुष्ठान करनेसे हम परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं । यद्यपि नेत्रोंसे शास्त्रको पढ़कर भी परोक्ष विषयका ज्ञान होता है, तथापि शब्दका ही लिखितरूप होनेसे वह भी मूलमें शब्दकी शक्ति ही है । शास्त्रज्ञान भी जैसा अनुभवी पुरुषसे सुनकर होता है, वैसा केवल पढ़नेसे नहीं होता[2]

एक तो शब्दकी शक्ति है और एक अनुभवकी शक्ति है । अनुभवरहित शब्द तो केवल बारूदसे भरी बन्दूकके समान है, जो केवल आवाज करके शान्त हो जाती है, पर अनुभवयुक्त शब्द गोलीसे भरी बन्दूकके समान है, जो आवाजके साथ-साथ चोट भी करती है । इसलिये अनुभवी सन्तकी वाणीका श्रोतापर जैसा असर पड़ता है, वैसा असर अनुभव न किये हुए पुरुषकी वाणीका नहीं पड़ता । शास्त्रमें भी आया है कि जिस वक्तामें निम्नलिखित चार दोष होते हैं, उसकी वाणीका दूसरोंपर असर नहीं पड़ता और वह वाणी वास्तविक तत्त्वका विवेचन भी नहीं कर सकती‒

(१) भ्रम‒वस्तु जैसी हो, वैसी न दीखकर और तरहकी दीखे‒यह भ्रम’ है । अगर वक्ताके अन्तःकरणमें संसारकी सत्ता और महत्ता होगी तो वह तत्त्वकी जो बात कहेगा, उसका दूसरोंपर असर नहीं पड़ेगा; क्योंकि उसके अन्तःकरणमें संसारकी सत्ता और महत्ता अखण्डरूपसे रहती है । अतः उसकी बात सीखी हुई न होकर अनुभवकी हुई होनी चाहिये । अगर उसको अपनी बातपर कोई सन्देह हो तो स्पष्टरूपसे कह देना चाहिये कि मैं इस विषयमें निःसंदिग्ध नहीं हूँ । छिपाव न करके स्पष्टरूपसे कही बातका दूसरोंपर असर पड़ता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो’ पुस्तकसे

       [1] शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात् शब्दादेवापरोक्षधीः ।
  प्रसुप्तः पुरुषो    यद्वत्     शब्देनैवावबुध्यते ॥
                                                  (सदाचारानुसंधानम् १९)

शब्दमें अचिन्त्य शक्ति होनेके कारण जैसे सोया हुआ मनुष्य शब्दमात्रसे जग जाता है, ऐसे ही परमात्मतत्त्व भी शब्दमात्रसे प्रत्यक्ष हो जाता है ।’

निर्बलत्वादअविद्याया आत्मत्वाद् बोधरूपिणः ।
शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्   विद्मस्तं   मोहहानतः ॥

अविद्याके दुर्बल होनेसे और आत्माके बोधस्वरूप होनेसे एवं शब्दमें अचिज्य शक्ति होनेसे मोह नष्ट होनेपर हम परमात्मतत्त्वको जान लेते हैं ।’

[2] वचन आगले सन्तका, हरिया हस्ती दन्त ।
    ताख न टूटे भरमका, सैंधे  ही बिनु सन्त ॥