।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
श्रीहनुमज्जयन्ती, वैशाख-स्नानारम्भ
करण-निरपेक्ष तत्त्व



(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्राणिमात्रमें अपरा (जड) और परा (चेतन) दोनों प्रकृतियाँ हैं । अहम्’ अपरा प्रकृति है[1] और जीव’ परा प्रकृति है । अहम् और जीव अर्थात् जड और चेतनके सम्बन्धका ही नाम चिज्जडग्रन्थि है‒

जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
                                   (मानस ७ । ११७ । २)

जड-चेतनकी यह ग्रन्थि मिथ्या है, सत्य नहीं है, क्योंकि जड और चेतन एक-दूसरेसे सर्वथा विरुद्ध हैं । चेतन प्रकाशक है, जड प्रकाश्य है । चेतन अपरिवर्तनशील है, जड परिवर्तनशील है । चेतन कभी मिटता नहीं, जड कभी टिकता नहीं । दोनोंका स्वभाव अलग-अलग है । परन्तु अलग-अलग स्वभाव होते हुए भी दोनोंका एक-दूसरेसे वैर-विरोध नहीं है । इतना ही नहीं, चेतन जडका प्रकाशक है, सहायक है । असत्‌की सिद्धि भी सत्-रूप चेतनसे ही होती है । चेतन ही असत्‌को सत्ता देता है । हाँ, तत्त्वकी जिज्ञासाका असत् (जड) से वैर है; क्योंकि जिज्ञासासे जडके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसलिये एक दृष्टिसे तत्त्वकी अपेक्षा तत्त्वकी जिज्ञासा श्रेष्ठ है । भोगेच्छा तो संसार (पदार्थ और किया) से सम्बन्ध जोड़ती है, पर जिज्ञासा संसारसे सम्बन्ध तोड़ती है । भोगेच्छामें जडता (अहंकार) की मुख्यता रहती है और जिज्ञासामें चेतनकी मुख्यता रहती है । तात्पर्य है कि मनुष्य जड-अंशकी प्रधानतासे संसारकी, भोगोंकी इच्छा करता है और चेतन-अंशकी प्रधानतासे अपने उद्धारकी, मुक्तिकी, परमात्मतत्त्वकी इच्छा (जिज्ञासा) करता है ।

मनुष्य जबतक जड-अंश (अहंता) की प्रधानतासे संसारके भोगोंमें लिप्त रहेगा, तबतक उसको कभी परमशान्ति, परम आनन्द नहीं मिलेगा । ब्रह्माका पद मिल जाय तो भी उसको परमशान्ति नहीं मिलेगी ।


[1] गीतामें भगवान्‌ने अपरा प्रकृतिके आठ भेद बताये हैं‒पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार (७ । ४-५) । इन सबमें बन्धनका मुख्य कारण अहंकार’ ही है । पृथ्वी, जल, तेज आदिमें परस्पर बहुत तारतम्य होनेपर भी वे सब एक जातिके (अपरा) ही हैं । अतः जिस जातिकी पृथ्वी है, उसी जातिका अहंकार है अर्थात् अहंकार भी मिट्टीके ढेलेकी तरह जड है ! इस रहस्यकी ओर विशेष लक्ष्य करानेके लिये ही भगवान्‌ने अहंकारको क्षेत्र’ बताते हुए एतत्’ पदका प्रयोग किया है‒‘एतद्यो वेत्ति’ (१३ । १) । इस प्रकार अहम्’ को इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि यह अपने स्वरूपसे अलग है और जाननेमें आनेवाला है । कारण कि इदम् कभी स्वयं (स्वरूप) नहीं होता और स्वयं कभी इदम् नहीं होता । जीव भूलसे इस अहम्‌’ के साथ एकता कर लेता है अर्थात् अहम्‌को अपना स्वरूप मान लेता है, जिससे उसका आकर्षण जडताकी ओर हो जाता है और वह जडताके वशमें हो जाता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहजसाधना’ पुस्तकसे