।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र पूर्णिमावि.सं.२०७२शुक्रवार
श्रीहनुमज्जयन्ती, वैशाख-स्नानारम्भ
करण-निरपेक्ष तत्त्व



(गत ब्लॉगसे आगेका)

परिवर्तनशील वस्तुसे अपरिवर्तनशीलको शान्ति कैसे मिल सकती है ? असत्‌से सत्‌की पूर्ति कैसे हो सकती है ? परन्तु जब मनुष्य चेतनकी प्रधानताको लेकर (जडताका त्याग करते हुए) चलेगा, तब जड-अंश (अहम्) मिट जायगा और शुद्ध चेतन रह जायगा । जड-अंश मिटनेसे आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जायगा । आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर पूर्णता हो जायगी[1] अर्थात् वह कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जायगा । वास्तवमें पूर्णता तो स्वतःसिद्ध है । जडके सम्बन्धसे ही पूर्णताका अनुभव नहीं होता । जडके सम्बन्धका अत्यन्ताभाव होनेपर, जडसे सर्वथा असंग होनेपर स्वतः पूर्णताका अनुभव हो जाता है, जो पहलेसे ही है । परन्तु केवल परमात्मतत्त्वकी, स्वरूपके बोधकी जिज्ञासा होनेसे; भगवान्‌के प्रेमकी, दर्शनकी अभिलाषा होनेसे ही यह होगा । तात्पर्य है कि जिज्ञासा होनेसे विवेक विशेषतासे जाग्रत् होगा, जिससे जडतासे असंगता हो जायगी । असंगता होते ही जडकी निवृत्ति अर्थात् अहंकारका अभाव हो जायगा । अहंकारका अभाव होनेसे ममताका भी स्वतः अभाव हो जायगा[2] और अपने असंग स्वरूपका अनुभव हो जायगा । इसमें कोई कारक काम नहीं करेगा ।

सब कारकोंमें कर्ता’ मुख्य है । कर्तामें चेतनकी झलक आती है अन्य कारकोंमें नहीं । वास्तवमें कर्ता’ नाम चेतनका नहीं है । यह माना हुआ कर्ता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्‌ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें पाँच हेतु (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव) बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा (अपने स्वरूप ) को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है कि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, वह दुर्मति है[3] । कारण कि स्वरूपमें कर्तृत्व और भोकृत्व दोनों ही नहीं हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१)


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सहजसाधना’ पुस्तकसे


[1] जबतक आसक्तिका सर्वथा अभाव नहीं होता, तबतक ऊँची-से-ऊँची बातें कर सकते हैं, बढ़िया विवेचन कर सकते हैं, व्याख्यान दे सकते हैं, पुस्तकें लिख सकते हैं; परन्तु परमशान्तिकी प्राप्ति नहीं कर सकते ।

[2] जब चेतन जडतासे सम्बन्ध जोड़ता है, तब उसमें ‘मैं-पन’ उत्पन्न होता है । शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन (अहंता और ममता) दोनों होते हैं तथा अन्य पदार्थोंमें मेरा-पन होता है । परन्तु पदार्थोंको लेकर अपनेमें अभिमान करनेसे मैं-पन भी साथमें मिल जाता है और दृढ़ हो जाता है; जैसे‒मैं धनवान् हूँ आदि । [ अपनेमें विद्या, बुद्धि, योग्यता आदिका आरोप करनेसे तो अभिमान’ होता है और धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदिको लेकर अपनेमें बड़प्पनका आरोप करनेसे ‘दर्प’ (घमण्ड) होता है । ] जड-अंश हटनेसे मैं-पन और मेरा-पन नहीं रहते, स्वरूप रह जाता है । स्वरूपमें मैं-पन और मेरा-पन दोनों ही नहीं हैं ।

[3] तत्रैव सति  कर्तारमात्मान  केवलं  तु यः ।
   पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
                                       (गीता १८ । १६)