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जब स्वरूप कर्ता नहीं है तो फिर कर्ता
कौन होता है ? इसको भगवान्ने गीतामें कई प्रकारसे
बताया है; जैसे‒सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं
अर्थात् प्रकृति कर्ता है ( १३ । २१), सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंके द्वारा होती हैं; गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् गुण कर्ता हैं ( ३ । २७-२८, १४ । २३), गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं (१४ । १९); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें
बरत रही हैं अर्थात् इन्द्रियाँ कर्ता हैं (५ । ९) । तात्पर्य है कि कर्तृत्व प्रकृतिमें
ही है, स्वरूपमें नहीं । इसीलिये अपने चेतन स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ
महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ ऐसा अनुभव करता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत
तत्त्ववित्’ (गीता ५ । ८) तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः
। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥’ ( गीता ३ । २८) । भगवान् भी कहते हैं कि जब मनुष्य गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता
नहीं देखता अर्थात् वह क्रियामात्रमें ऐसा अनुभव करता है कि गुणोंके सिवाय दूसरा कोई
कर्ता नहीं है और अपनेको गुणोंसे बिलकुल असम्बद्ध अनुभव करता है, (जो वास्तवमें है[*]) तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है[†] ।
गीतामें भगवान्ने कर्तापनमें प्रकृतिको
और भोक्तापनमें पुरुषको हेतु बताया है[‡] । पुरुष (चेतन) को भोक्तापनमें हेतु
क्यों बताया ? सुख-दुःखका अनुभव अर्थात् भोग चेतनमें
ही हो सकता है, जडमें नहीं । सुखी-दुःखी चेतन ही होता
है । क्रिया तो जडमें होती है, पर क्रियाका फल (सुखी-दुःखी होना) पुरुषमें
होता है । परन्तु वास्तवमें प्रकृतिस्थ अर्थात् अहम्में स्थित पुरुष ही सुख-दुःखका
भोक्ता बनता है‒‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३ । २१) तात्पर्य है कि अहंकारका सम्बन्ध रहनेसे
ही पुरुष सुख-दुःखका भोक्ता बनता है । यदि अहंकारका सम्बन्ध न रहे तो पुरुष सुख-दुःखका
भोक्ता नहीं बनता अर्थात् वह सुखी-दुःखी न होकर अपने स्वतःसिद्ध आनन्दस्वरूपमें स्थित
रहता है‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४ । २४) । अतः भोक्तापन भी केवल
माना हुआ है, वास्तवमें नहीं है । तात्पर्य है कि
चेतनमें कर्तृत्व-भोकृत्व पहलेसे ही नहीं हैं, इसीलिये ये मिटते हैं[§] । यदि चेतनमें कर्तृत्व-भोकृत्व होते तो चेतनके रहते हुए
वे कभी मिटते ही नहीं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘सहजसाधना’ पुस्तकसे
[*] स्वरूप (आत्मा) गुणोंसे सर्वथा रहित
है‒‘निर्गुणत्वात्’ (गीता १३ । ३१) । गुण प्रकाश्य हैं, आत्मा प्रकाशक है । गुण परिवर्तनशील हैं, आत्मा अपरिवर्तनशील है । गुण अनित्य हैं, आत्मा नित्य है ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
(गीता
१४ । १९)
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते
॥
(गीता १३ ।
२०)
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते
॥
(गीता
१८ । १७)
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