(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब स्वरूपमें कर्तृत्व ही नहीं है, ‘कर्ता’-रूपी कारकके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है, तब इसका सम्बन्ध अन्य कारकोंके साथ कैसे होगा ? अतः पहले साधकको सिद्धान्तसे यह निर्णय करना होगा कि मेरे स्वरूपमें कर्तृत्व-भोकृत्व, अहंता-ममता नहीं है । यद्यपि यह निर्णय बुद्धि (करण) में
दीखता है, तथापि ‘ये मेरेमें नहीं हैं’‒यह अनुभव स्वयंको होता है । स्वयंका
यह अनुभव करना करण-निरपेक्ष साधन है । तात्पर्य है कि पहले बुद्धिसे विचार होता है
। विचारके बाद बुद्धिका निर्णय होता है कि मेरेमें कारकमात्रका अभाव है । परन्तु इस
अभावका अनुभव करनेवाला स्वयं है । स्वयंको होनेवाले इस अनुभवमें कोई करण नहीं है, प्रत्युत करणसे सम्बन्ध-विच्छेद है ।
जिस जगह क्रिया होती है, उसको अधिष्ठान
(अधिकरण) कहते हैं । परन्तु जहाँ स्वयं अधिष्ठान है, वहाँ क्रिया नहीं है अर्थात् स्वयं किसी भी क्रियाका अधिष्ठान नहीं है । स्वयंमें
सबका आरोप होता है, क्योंकि आरोप होनेकी जगह तत्त्व ही है । तत्त्वके सिवाय आरोपित
वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । इसलिये स्वयंको सबका अधिष्ठान, आश्रय, आधार, प्रकाशक कहा जाता है ।
इस प्रकार स्वयंमें कर्ता, कर्म, करण, अधिकरण आदि कोई भी कारक नहीं है[*] । अतः स्वरूपका बोध अथवा परमात्मतत्वकी प्राप्ति जडताके
द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जडताके सम्बन्ध-विच्छेदसे
होती है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सहजसाधना’ पुस्तकसे
[*] कारकोंमें कर्ता, कर्म, करण और अधिकरण‒ये चारों तो क्रियामें विकृत (परिणत) होते हैं, पर सम्प्रदान और अपादान क्रियामें विकृत नहीं होते, प्रत्युत क्रियामें सहायकमात्र होते हैं, इसलिये इनमें कर्मकर्तृप्रयोग नहीं होता । जैसे, ‘सुपात्रको दान दिया’‒यह सम्प्रदान कारक है । दान देनेसे दान लेनेवालेमें कोई विकृति नहीं आती । यदि
कोई लेनेवाला न हो तो दान सिद्ध नहीं होता, इसलिये दानमें सहायक होनेसे इसको कारक कहा गया है । ऐसे ही ‘गाँवसे आया’‒यह अपादान कारक है । गाँवसे आनेपर गाँवमें कोई विकृति नहीं आती । परन्तु आनेमें
सहायक होनेसे इसको कारक कहा गया है ।
कर्म चार प्रकारके होते हैं‒उत्पाद्य, विकार्य, संस्कार्य और आप्य [ कहीं-कहीं निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य‒ये तीन प्रकार बताये गये हैं ] । इनमेंसे ‘आप्य’ कर्ममें भी कोई विकृति नहीं आती; जैसे‒‘मैंने धन प्राप्त किया’ तो धनमें कोई विकृति नहीं आयी ।
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