(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मासे हम अपनी तरफसे विमुख हुए हैं इसीलिये वे नहीं मिल
रहे हैं ।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ॥
(मानस ५ । ४४
। १)
आप केवल भगवान्को अपना मान लें कि भगवान् ही हमारे हैं और ये
वस्तुएँ हमारी नहीं हैं । इतनी ही तो बात है ! कठिन नहीं है । जबतक आप पक्का विचार
नहीं करते, तबतक बड़ा कठिन है । पक्का विचार करनेपर
कोई कठिन नहीं । स्वीकार कर लें कि दुःख, सन्ताप, जलन, अपमान, निन्दा, रोग, मृत्यु
कुछ भी आ जाय, हम तो भगवान्की तरफ ही चलेंगे । फिर हमें कोई नहीं
हटा सकता ।
भोग और संग्रहकी इच्छाके ऊपर ही सब नरक और चौरासी लाख योनियाँ
अवलम्बित हैं । सम्पूर्ण दुःख, सन्ताप, पाप आदि इसीसे होते हैं । फिर इनकी प्राप्तिमें अपनी बहादुरी
मानना, उन्नति मानना कितनी बड़ी भूल है ! सोचते हैं कि इतना धन मिल गया,
तो हमारा उद्योग सफल हो गया । अरे,
सफल नहीं महान् विफल हो गया ! एक पलमें ही सब छूट जायगा । जो
लखपति और करोड़पति हैं, वे सुखी नहीं हैं, पर जो भगवान्में लगे हैं, वे
सुखी हैं, मौज-आनन्दमें हैं ।
जितना भोग और ऐश्वर्य छूटेगा,
उतनी ही शान्ति होगी । एक श्लोकका भाव है कि आशारूपी रस्सीसे
बँधा हुआ पुरुष तो भागता-फिरता है, और खुला हुआ पुरुष मौजसे बैठता है ! ‘आशया ये कृता दासास्ते दासाः सर्वदेहिनाम् ।’
जो आशाके दास हैं कि धन मिले,
मान मिले, अमुक वस्तु मिले, वे सम्पूर्ण शरीरधारियोंके दास हैं,
और ‘आशा येन कृता दासी तस्य दासायते
जगत् ॥’ जिसने आशाको दासी बना लिया,
उसके सभी दास हो जाते हैं । मनुष्य एक आशाका दास हो जायगा,
तो दुनियामात्र उसपर सवार हो जायगी । वह वृक्षके पास जायगा,
तो उससे भी ‘यह ले लें,
वह ले लें’ की भावना रहेगी । मनुष्य होकर भी अक्ल
कहाँ गयी ? कब अक्ल आयेगी ? ये शरीर, इन्द्रिय, भोग, जवानी
आदि कितने दिनोंतक रहेंगे ? फिर भी रात-दिन जानेवाले पदार्थोंकी आशामें ही लगे रहते
हैं और नित्यप्राप्त परमात्माकी तरफ ध्यान ही नहीं देते !
परमात्मा नित्यप्राप्त है और संसार अप्राप्त है । नित्यप्राप्तकी
प्राप्ति यदि कठिन है, तो क्या अप्राप्तकी प्राप्ति सुगम है ?
परमात्मा कभी अप्राप्त नहीं होते । हम ही उनसे विमुख हुए हैं,
वे विमुख नहीं हुए । परमात्मासे विमुख होनेसे वे दूर दीखते हैं
और संसारके सम्मुख होनेसे वह नजदीक दीखता है । वास्तवमें संसार कभी नजदीक आया ही नहीं
और भगवान् कभी दूर हुए ही नहीं । भगवान्की ताकत नहीं दूर
होनेकी, संसारकी ताकत नहीं पास आनेकी और ठहरनेकी । कितनी
विलक्षण बात है ! भगवान्की तरफ
चलते ही भगवान् राजी हो जाते हैं, खुश हो जाते हैं; जैसे बालक माँ-माँ करता गोदमें आ जाय,
तो माँ प्रसन्न हो जाती है । वह बालकको खिलाती-पिलाती है,
कपडे पहनाती है, सब कुछ वही करती है और बालकके गोदीमें आनेपर राजी हो जाती है
। अब इसमें बालकका क्या लगा ? ऐसे ही हम भगवान्के सम्मुख हो जायँ,
तो वे राजी हो जायँ‒
त्वमेव
माता च पिता त्वमेव
त्वमेव
बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव
विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव
सर्वं मम देवदेव ॥
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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