।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
अचला एकादशी-व्रत (सबका)
वास्तविक उन्नति किसमें ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो नहीं है, उसकी प्राप्तिमें बहादुरी मानना कोरा वहम ही है । जो परमात्मा सदासे हैं और सदा रहेंगे‒उसे प्राप्त कर लेना ही वास्तवमें उन्नति है । केवल उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थोंकी लोलुपताके कारण ही उस नित्यप्राप्त तत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो रही है । यदि नाशवान्‌के सम्बन्धका त्याग कर दें, तो वह जैसा है वैसा मिल जायगा । वह तो मिला हुआ ही है । केवल दृष्टि उस तरफ नहीं है । दृष्टि केवल नाशवान् भोग और संग्रहकी तरफ है, जो कि है नहीं, रहेगा नहीं । परमात्मा थे, हैं और रहेंगे तथा एक बार मिलनेपर फिर कभी नहीं बिछुड़े । उनके मिलनेपर फिर कभी किंचिन्मात्र भी मोह, दुःख नहीं होगा‒‘यज्वात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४ । ३५) । वे अपने हैं और उनपर अपना वैसा अधिकार है, जैसा माँपर बच्चेका अधिकार रहता है । बच्चा रोकर माँसे चाहे जो करा ले, ऐसे भगवान्‌से चाहे जो करा लो ! भगवान् कहते हैं ‒‘मैं तो हूँ भगतनको दाम भगत मेरे मुकुटमणि !’ धनने कभी कहा कि तू मेरा मुकुटमणि है ? उसने कभी कहा कि मैं तुम्हारा हूँ तुम हमारे हो ? पर भगवान् कहते हैं कि तुम हमारे हो‒‘ममैवांशः’ (गीता १५ । ७) । वे अपने हैं और सदा अपने साथ रहते हैं । उनसे कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं और होगा नहीं । ऐसे परमात्मासे विमुख होकर उसे चाहते हैं जो अभी नहीं है और मिल जायगा तो अन्तमें नहीं रहेगा ! क्या अक्लपर पत्थर पड़ गये, जो उलटा-ही-उलटा चल रहे हैं ? नाशवान्‌की इच्छा तो कभी पूरी होगी नहीं । पूरी हो भी कैसे ? वह अधूरा और आप पूरे, वह नहीं रहनेवाला और आप रहनेवाले परमात्माके अंश । धनके लिये आप धर्म छोड़ देते हैं, आराम छोड़ देते हैं, सुख छोड़ देते हैं; सब कुछ छोड़कर धनके पीछे पड़े रहते हैं । पर जब वह धन जाने लगता है, तब आपसे पूछता ही नहीं ! उस निर्दयीको दया नहीं आती कि इसने मेरे लिये धर्म-कर्म छोड़ा है, सत्य बोलना छोड़ा है, झूठ, कपट, बेईमानी आदि बड़े-बड़े पापोंको स्वीकार किया है, तो कम-से-कम इसकी सम्मति तो लेता जाऊँ ! पर भगवान्‌के लिये त्याग करें तो ?

ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तौस्त्यक्तुमुत्महे ॥
                                         (श्रीमद्भा ९ । ४ । ६५)

भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष, स्त्री, घर, पुत्र, कुटुम्बीजन, प्राण, धन और इस लोकका सुख त्यागकर एक मेरी शरणमें आ गये हैं, उनका त्याग करनेका उत्साह भी मेरे मनमें कैसे हो सकता है ? इन छूटनेवालोंको ही छोड़ दें, तो इसीसे भगवान् राजी हो जाते हैं और हमारा बड़ा अहसान मानते हैं ! इन वस्तुओंको क्या कोई अपने साथ रख सकता है ? तो छूटनेवालोंको छोड़नेसे ही भगवान् राजी हो जायँ, इतना सस्ता है कोई सौदा ?

कितना ही धन कमा लो, कितना ही भोग भोगो, कैसा ही शरीर प्राप्त कर लो, सब-का-सब छूटनेवाला है । इसमें कोई शंका है क्या ? फिर इनके लिये उद्योग करते हैं और इनके मिलनेपर बड़े राजी होते हैं, कितनी मूर्खता है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे