।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
एकादशी-व्रत कल है (सबका)
वास्तविक उन्नति किसमें ?



मनुष्य चाहता है कि जो वस्तु मेरे पास अभी नहीं है, वह मिल जाय । उसीके मिलनेसे वह अपनी उन्नति मानता है । एक तो भोग नहीं है, वे मिल जायँ और एक रुपये-पैसे नहीं है, वे मिल जायँ । इस प्रकार जो चीज नहीं है, वह मिल जाय तो निहाल हो जाऊँ ! परंतु जो अभी नहीं है, वह मिल जाय, तो फिर बादमें भी नहीं रहेगा‒यह बात भी सच्ची है । धन कितना ही मिल जाय, पर वह सदा साथ रहेगा नहीं । चाहे धन चला जाय, चाहे आप मर जायँ और चाहे दोनों नष्ट हो जायँ । जो पहले नहीं है, वह बादमें भी नहीं रहेगी । ऐसी वस्तुकी मनुष्य इच्छा करता है, और उसे इकट्ठी करके समझता है कि हमने बड़ी भारी उन्नति कर ली । हमारे माँ-बाप साधारण व्यक्ति थे, पर हम लखपति-करोड़पति बन गये‒यह बड़ा काम कर लिया ! फिर इसमें वह अभिमान करने लगता है । वास्तवमें देखा जाय तो यह महान् मूर्खता है, मामूली मूर्खता नहीं ।

जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके ही कारण हैं‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता ५ । २२) । और कोई दुःखका कारण है ही नहीं । अर्जुनने पूछा कि महाराज, मनुष्यको पापमें कौन लगाता है ? तो भगवान्‌ने उत्तर दिया ‘काम एषः’ (गीता ३ । ३७) अर्थात् जो अपने पासमें नहीं है उसकी कामना । रुपया मिल जाय, मान-बड़ाई मिल जाय, वाह-वाह मिल जाय, नीरोगता मिल जाय, आराम मिल जाय आदि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखोंकी जड़ है । उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुकी चाहना होनेपर दुःख भोगना ही पड़ेगा, इससे ब्रह्माजी भी नहीं बचा सकते । सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छासे कोरे दुःख और पाप ही होते हैं । सम्बन्धके समय थोड़ा-सा सुख मिलता है, पर पहले और बादमें दुःख-ही-दुःख रहता है । शरीर खराब हो जाता है, फिर नरकोंमें जाता है, चौरासी लाख योनियोंमें जाता है, इस प्रकार आगे दुःख-ही-दुःख आता है ।

यह बात तो मैंने कई बार कही है कि वस्तुकी इच्छा हुई तो उस इच्छाके मिटनेसे सुख होता है, पर वह समझता है कि वस्तुके मिलनेसे सुख हुआ । यदि वस्तुके मिलनेसे ही सुख होता हो, तो उस वस्तुके रहते हुए फिर दुःख नहीं होना चाहिये । तो वास्तवमें वस्तुके न मिलनेका दुःख नहीं है, दुःख तो उसकी इच्छाका है । वह इच्छा मिटते ही सुख होता है । यदि वह इच्छा सदाके लिये मिट जाय, तो मौज हो जाय !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे