मनुष्य चाहता है कि जो वस्तु मेरे पास अभी नहीं है,
वह मिल जाय । उसीके मिलनेसे वह अपनी उन्नति मानता है । एक तो
भोग नहीं है, वे मिल जायँ और एक रुपये-पैसे नहीं है,
वे मिल जायँ । इस प्रकार जो चीज नहीं
है, वह मिल जाय तो निहाल हो जाऊँ ! परंतु जो अभी नहीं
है, वह मिल जाय, तो
फिर बादमें भी नहीं रहेगा‒यह बात भी सच्ची है । धन कितना ही मिल जाय,
पर वह सदा साथ रहेगा नहीं । चाहे धन चला जाय,
चाहे आप मर जायँ और चाहे दोनों नष्ट हो जायँ । जो पहले नहीं
है, वह बादमें भी नहीं रहेगी । ऐसी वस्तुकी मनुष्य इच्छा करता है,
और उसे इकट्ठी करके समझता है कि हमने बड़ी भारी उन्नति कर ली
। हमारे माँ-बाप साधारण व्यक्ति थे, पर हम लखपति-करोड़पति बन गये‒यह बड़ा काम कर लिया ! फिर इसमें
वह अभिमान करने लगता है । वास्तवमें देखा जाय तो यह महान्
मूर्खता है, मामूली मूर्खता नहीं ।
जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं,
वे सब-के-सब दुःखोंके ही कारण हैं‒‘ये
हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता
५ । २२) । और कोई दुःखका
कारण है ही नहीं । अर्जुनने पूछा कि महाराज,
मनुष्यको पापमें कौन लगाता है ?
तो भगवान्ने उत्तर दिया ‘काम एषः’ (गीता
३ । ३७) अर्थात् जो अपने पासमें नहीं है उसकी कामना । रुपया मिल
जाय, मान-बड़ाई मिल जाय, वाह-वाह मिल जाय, नीरोगता मिल जाय, आराम मिल जाय आदि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखोंकी जड़ है
। उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुकी चाहना होनेपर दुःख भोगना
ही पड़ेगा, इससे ब्रह्माजी भी नहीं बचा सकते । सम्बन्धजन्य सुखकी
इच्छासे कोरे दुःख और पाप ही होते हैं । सम्बन्धके समय थोड़ा-सा सुख मिलता है, पर
पहले और बादमें दुःख-ही-दुःख रहता है । शरीर खराब हो जाता है, फिर
नरकोंमें जाता है, चौरासी लाख योनियोंमें जाता है, इस
प्रकार आगे दुःख-ही-दुःख आता है ।
यह बात तो मैंने कई बार कही है कि वस्तुकी इच्छा
हुई तो उस इच्छाके मिटनेसे सुख होता है,
पर वह समझता है कि वस्तुके मिलनेसे सुख हुआ । यदि वस्तुके मिलनेसे ही सुख होता हो,
तो उस वस्तुके रहते हुए फिर दुःख नहीं होना चाहिये । तो वास्तवमें
वस्तुके न मिलनेका दुःख नहीं है, दुःख तो उसकी इच्छाका है । वह इच्छा मिटते ही सुख होता है ।
यदि वह इच्छा सदाके लिये मिट जाय, तो मौज हो जाय !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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