(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारसे सम्बन्ध हमने कई जन्मोंसे मान रखा है
इसलिये इसे छोड़नेमें देरी लगेगी । ऐसी बात है ही नहीं । पहाड़की एक गुफामें लाखों वर्षोंसे अंधेरा है,
पर आज यदि कोई वहाँ प्रकाश करे तो अँधेरेको मिटते कितने वर्ष
लगेंगे ? प्रकाश होते ही अंधेरा चट दूर हो जाता है । ऐसे ही ज्ञान होनेपर झूठा सम्बन्ध
मिटते देर नहीं लगती । आप कृपा करके इन बातोंकी तरफ ध्यान दें । एकान्तमें विचार करें
कि समझमें न आवे, तो भी बात तो यही सही है । भगवान्,
शास्त्र, सन्त-महात्मा, ऋषि-मुनि, अनुभवी महापुरुष सभी यही बात कहते हैं कि संसारके साथ मनुष्यका
सम्बन्ध है नहीं । आप भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि सम्बन्ध रहता नहीं,
निरन्तर छूट रहा है । पर आप इसे आदर नहीं देते । यदि इसे आदर
दें तो माना हुआ सम्बन्ध रहेगा नहीं ।
संसारसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं‒यह बात बिलकुल
सच्ची होनेपर भी आपकी पकड़में इसलिये नहीं आती कि आप इस बातपर मन-बुद्धिके द्वारा विचार
करते, हैं, और मन-बुद्धिसे आगे जो स्वयं हैं,
वहाँ नहीं पहुँचते । यह बड़ी गलती है । आप स्वयं क्या हैं ? बालकपनमें आप जो थे, अब भी आप वही हो ।
तो बालकपन आदि अवस्थाएँ बदल गयीं, पर आप स्वयं नहीं बदले । आपका होनापन ज्यों-का-त्यों रहा । तो
अपना जो होनापन है, उसके साथ संसारका सम्बन्ध नहीं है । जिन मन-बुद्धिके द्वारा
आप विचार करते हैं, वे भी नष्ट होनेवाले हैं,
वियुक्त होनेवाले हैं । तो वियुक्त होनेवाली वस्तुसे वियुक्त
होनेवाली वस्तु कैसे ठहरेगी ? दोनों एक ही धातुके,
एक ही प्रकृतिके हैं । बदलनेवालेके
साथ न बदलनेवालेको मत मिलाओ, इतनी ही बात है । जैसे बाल्यावस्था चली गयी,
वैसे युवावस्था और वृद्धावस्था भी चली जायगी,
पर आपका होनापन वही रहेगा । अतः बदलनेवालेके
साथ मेरा सम्बन्ध है नहीं‒ऐसा आप इसी क्षण मान लें । इसमें देरीका काम नहीं ।
आप यह मत देखें कि संसारका सम्बन्ध छोड़नेसे इन्द्रियोंमें
कोई विलक्षणता आयी कि नहीं । किसान लोग हल चलाने, बीज बोनेपर कह देते हैं कि खेती हो गयी,
जबकि अभी फसल पैदा होनेमें देरी लगेगी । पर खेती हो ही गयी,
इसमें अब संदेह नहीं है । तो आपने
बात मान ली कि संसारसे मेरा सम्बन्ध नहीं, तो मानो खेती हो गयी ! अब मन-बुद्धि-इन्द्रियोंपर इसका क्या असर पड़ा‒इसे मत देखो
। असर नहीं दीखनेका कारण है कि आप उस असरको मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे ही देखना चाहते
हो और मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें ही देखना चाहते हो । मैं कहता हूँ कि आप इसपर दृष्टि
मत डालो । दृष्टि उसपर डालो जो निरन्तर रहनेवाला है । कितनी सुगम बात है ! कितनी ऊँची
बात है ! इसमें कोई अभ्यास नहीं । सुगमता-कठिनता, अच्छा-मन्दा सब मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें है,
जो परिवर्तनशील हैं,
इससे अलग जो परिवर्तनशील नहीं है,
वह तो ज्यों-का-त्यों है । इस वास्ते मन-बुद्धि आदिके लक्षण
बिलकुल मत देखो । अपनेमें यानी स्वरूपमें बदलना कभी होता ही नहीं । बदलनेवालेकी ओर मत देखो, उसकी परवाह मत करो । निरन्तर रहनेवाले अपने स्वरूपको देखो । फिर मुक्ति स्वतःसिद्ध
है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
|