लोगोंने ऐसा समझ रखा है कि जैसे सांसारिक वस्तुको पानेके लिये
उद्योग करना पड़ता है, वैसे भगवान्को पानेके लिये भी उद्योग करना पड़ेगा । लोग शंका
भी करते हैं कि बिना कोई उद्योग किये मुक्ति कैसे हो जायगी ?
तो वास्तवमें यह बात ठीक तरहसे समझी हुई नहीं है,
तभी शंका पैदा होती है । आप खयाल
करें कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु आदिमें
परिपूर्ण है । जैसे सांसारिक वस्तु कर्मोंके द्वारा प्राप्त की जाती है वैसे परमात्मा
प्राप्त नहीं किये जाते । सांसारिक वस्तुकी तरह परमात्माको बनाया या कहींसे लाया नहीं
जाता । परमात्मा भी मौजूद हैं और हम भी मौजूद हैं ।
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं ।
कहहु सो कहाँ जहाँ
प्रभु नाहीं ॥
(मानस १ । १८५ । ३)
हमारा शरीर तो बनता-बिगड़ता है,
संसार भी सब-का-सब अदृश्य हो रहा है,
एक क्षण भी टिकता नहीं । परन्तु परमात्मा और उसके अंश हम स्वयं
नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों रहते हैं । इसलिये न परमात्माको बनाना है,
न अपनेको बनाना है । तो फिर हमारे लिये क्या करना रह गया ?
यह जो नष्ट हो रहा है न, इस संसारकी ओर जो हमारा खिंचाव है,
इसे पकड़ना चाहते हैं, रखना चाहते हैं, बस,
यही गलती है । इसे ही मिटाना है । इसी गलतीसे
हम दुःख पाते हैं । जो रहनेवाला नहीं है, निरन्तर जा रहा है, उसे अपने साथ रखनेकी इच्छाको ही दूर करना है, और कुछ नहीं करना है । परमात्मा भी मौजूद हैं, हम भी मौजूद हैं और परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध भी मौजूद है
। संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं, केवल माना हुआ है । हम रहनेवाले और संसार जानेवाला,
इनमें सम्बन्ध है कहाँ ?
तो संसारके साथ हमने सम्बन्ध मान लिया,
और जिसके साथ हमारा नित्य सम्बन्ध है,
उसको भुला दिया, उसे नहीं माना‒यही गलती हुई है । चाहे
तो ऐसा मान लें कि परमात्माके साथ हमारा नित्य सम्बन्ध है, और चाहे ऐसा मान लें कि संसारके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है ।
ठीक तरहसे, गहरा उतरकर समझें कि संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही कहाँ ?
शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धिके साथ हमारा कहाँ सम्बन्ध रहता है ! ये तो बनते-बिगड़ते
रहते हैं, इनमें परिवर्तन होता रहता है,
पर हम जैसे-के-तैसे रहते हैं । ऐसा ठीक अनुभवमें न आये,
तो भी इस बातको पक्की तरह मान लें कि संसारके साथ हमारा सम्बन्ध
नहीं है । आप कहते हैं कि संसारका सम्बन्ध छूटता नहीं, पर मैं कहता हूँ कि संसारको पकड़नेकी सामर्थ्य किसीमें है ही नहीं । बात बिलकुल सच्ची है । बालकपनको आपने कब छोड़ा ?
पर वह छूट गया । सब कुछ छूट रहा है‒यह सच्ची बात है । सच्ची बातका आप आदर करें । इतना
काम कर दें कि संसारका सम्बन्ध छूटता नहीं, यह भावना आप छोड़ दें । संसारका सम्बन्ध बिना किसी अभ्यासके अपने-आप छूट रहा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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