(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक सन्तकी बात हमने सुनी । विरक्त,
त्यागी सन्त थे । पैसा नहीं छूते थे और एकान्तमें भजन करते थे
। एक भाई उनकी बहुत सेवा किया करता । रोजाना भोजन आदि पहुँचाया करता । एक बार किसी
जरूरी कामसे उसे दूसरे शहर जाना पड़ा । तो उसने संतसे कहा कि महाराज ! मैं तो जा रहा
हूँ । तो संत बोले कि भैया ! हमारी सेवा तुम्हारे अधीन नहीं है,
तुम जाओ । उसने कहा कि महाराज ! पीछे न जाने कोई सेवा करे न
करे ? मैं बीस रुपये यहाँ सामने गाड़ देता हूँ, काम पड़े तो आप किसीसे कह देना । बाबाजी
ना-ना करते रहे, पर वह तो बीस रुपये गाड़ ही गया । अब वह तो चला गया । पीछे बाबाजी
बीमार पड़े और मर गये । मरकर भूत हो गये ! अब वहाँ रात्रिमें कोई रहे तो उसे खड़ाऊँकी
खट-खट-खट आवाज सुनायी दे । लोग सोचें कि बात क्या है ?
जब वह भाई आया तो उसे कहा गया कि वहाँ रातको खड़ाऊँकी आवाज आती
है, कोई भूत-प्रेत है, पर किसीको दुःख नहीं देता । वह रात्रिमें वहाँ रहा । उसे बड़ा
दुःख हुआ । उसने प्रार्थना की तो बाबाजी दीखे और बोले कि
मरते वक्त तेरे रुपयोंकी तरफ मन चला गया था । अब इन्हें तू कहीं लगा दे तो मैं छुटकारा
पा जाऊँ ! बाबाजीने रुपयोंको काममें भी नहीं लिया पर ‘मेरे लिये रुपये पडे हैं’ इस
भावसे ही यह दशा हो गयी । अब वे रुपये वहाँसे निकालकर धार्मिक काममें लगाये गये, तब
कहीं जाकर बाबाजीकी गति हुई ।
वृन्दावनकी एक घटना हमने सुनी थी । एक गलीमें एक भिखारी पैसे
माँगा करता था । उसके पास एक रुपयेसे कुछ कम पैसे इकट्ठे हो गये थे । वह मर गया । जहाँ
उसके चिथड़े पड़े थे, वहाँ लोगोंने एक छोटा-सा साँप बैठा हुआ देखा । उसे कई बार दूर
फेंका गया, पर वह फिर उन्हीं चिथड़ोंमें आकर बैठ जाता । जब नहीं हटा तो सोचा
बात क्या है ? साँपको दूर फेंककर चिथड़ोंमें देखा, तो
उसमेंसे कुछ पैसे मिले । वे पैसे किसी काममें लगा दिये । तो फिर वह साँप देखनेमें नहीं
आया ।
यह जो भीतर वासना रहती है,
यह बड़ी भयंकर होती है । वासना तब रहती है,
जब वस्तुओंमें प्रियता होती है । जहाँ वस्तुओंकी प्रियता या
आकर्षण रहता है, वहीं भगवान्की प्रियता जाग्रत् होनी चाहिये । आप बाहरसे भले ही कितने बढ़िया-बढ़िया काम करें, पर
भीतर संसारकी जो प्रियता या आकर्षण है,
वह खतरनाक है । इसलिये भगवान्ने सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करनेकी बात कही‒‘विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।’ निःस्पृहका
अर्थ है‒निर्वाह कैसे होगा ? मेरा जीवन कैसे चलेगा ?
इस प्रकार भी परवाह मनमें नहीं रखे । जीवन तो चलेगा ही । जिन
कर्मोंसे शरीर मिला है, उन कर्मोंसे उसका निर्वाह भी होगा । प्रारब्धमें न हो तो धनी व्यक्ति भी ज्यादा भोग नहीं भोग सकेगा, और
प्रारब्धमें हो तो साधारण व्यक्तिको भी भोग मिल जायेंगे । नहीं मिलनेवाला नहीं मिलेगा
और मिलनेवाला मिलेगा ही । मनमें जो प्रियता है, वह
बाधक है । वह नहीं होगी,
तो भी रुपये, वस्तु, आदर, महिमा आदि मिलेगी । निर्वाहकी चीज तो अपने-आप मिलेगी,
आप जो आशा करते हैं यहीं गलती होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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