(गत ब्लॉगसे आगेका)
भीतर भोग और संग्रहकी जो प्रियता है,
जिससे वे अच्छे लगते हैं और छोड़ना नहीं चाहते,
उसीका त्याग होना चाहिये । त्याग नाम इसीका है । बाहरका त्याग
भी अच्छा है, सहायक है । पर वास्तवमें त्याग प्रियताका
है । वह प्रियता ही जन्म-मरण देनेवाली और महान् नरकोंमें डालनेवाली चीज है ।
भगवान्ने चार चीजोंका त्याग बतलाया‒जो प्राप्त नहीं
है, उसकी कामना, जो
प्राप्त है उसकी ममता, निर्वाहकी स्पृहा और मैं ऐसा हूँ‒यह अहंता, जिसके
कारण अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है ।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २ । ७१)
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है ।
कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार‒इन चारोंका सर्वथा त्याग हो जाय तो अभी शान्ति
मिल जाय । ये चारों महान् अशान्ति पैदा करनेवाली चीजें हैं । इनको तो त्यागना नहीं
चाहते और शान्ति पाना चाहते हैं, ऐसा कभी होगा नहीं । कामनाके त्यागसे ही कर्मयोग सिद्ध होगा
। कर्मयोगके द्वारा सिद्ध हुए पुरुषका नाम स्थितप्रज्ञ है । उसके लक्षण बतलाते समय
आरम्भ और अन्तमें कामनाओंके त्यागकी बात कही । कामना,
स्पृहा, ममता और अहंकार‒इनका त्याग होनेपर फिर एक ब्रह्मकी प्राप्ति
हो जायगी‒‘ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’ (गीता
२ । ७२) ।
अन्तमें न जाने कहीं वासना रह जाय ? और जगह न रहे, पर
शरीरमें तो रह सकती है । इसलिये मनुष्य जितना सावधान रहे, उतना
अच्छा है । शरीर तो मूल चीज है इसलिये इसमें अहंता-ममता नहीं रहनी चाहिये । इसमें अहंता-ममता
होनेसे ही इसके निर्वाहकी इच्छा होती है । पर इच्छासे तो शरीर रहेगा नहीं । जीनेकी
इच्छा करते-करते ही लोग मरते हैं । इच्छा करनेमें फायदा तो कोई-सा नहीं है और नुकसान
कोई-सा भी बाकी नहीं है । मैंने खूब सोचा है, विचार
किया है ।
प्रश्न‒कामना
छोड़नेके लिये क्या करें ?
उत्तर‒अगर आपके मनमें करनेकी है, तो
यों करो‒नाम-जप करो और भीतरसे प्रार्थना करो कि हे नाथ ! हे प्रभु ! मेरेसे कामना, आसक्ति
छूटती नहीं ! इस प्रकार हरदम भीतरसे पुकारते ही रहो लगनसे । वे प्रभु परमदयालु हैं, वे
कृपा करेंगे । यह उपाय आप काममें लाकर देखें, उपाय
तो कई हैं, पर जोरदार लगन होनी चाहिये ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे
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