मनुष्यके भीतर जो इच्छा रहती है,
उसके तीन भेद हैं‒कामना,
जिज्ञासा और लालसा । सांसारिक भोग और संग्रहकी ‘कामना’
होती है, स्वरूप (निर्गुण तत्त्व)-की ‘जिज्ञासा’ होती है और भगवान् (सगुण तत्त्व)-की ‘लालसा’ होती है ।
संसारकी जो कामना है, वह
भूलसे पैदा हुई है । कारण कि हमारेमें
एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है । परमात्माका अंश जीवात्मा है‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ और प्रकृतिका अंश शरीर है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि
प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५ । ७) । मैं क्या हूँ ?‒इस
प्रकार स्वरूप (जीवात्मा)-को जाननेकी इच्छा ‘जिज्ञासा’ है
और भगवान् कैसे मिलें ? उनमें प्रेम कैसे हो ?‒इस प्रकार भगवान्को पानेकी
इच्छा ‘लालसा’
है । जिज्ञासा और लालसा‒ये दोनों इच्छाएँ अपनी हैं,
पर कामना अपनी नहीं है । कारण कि जिज्ञासा
और लालसा सत्-तत्त्वकी होती है,
पर कामना असत्की होती है ।
कामनाएँ शरीरको लेकर होती हैं । बहुत-से भाई-बहन शरीरको मुख्य
मानते हैं । पर वास्तवमें शरीर मुख्य नहीं है,
प्रत्युत जो शरीरमें अपना रहना मानता है,
वह शरीरी मुख्य है । शरीर तो कपड़ेकी तरह है । जैसे मनुष्य पुराने
कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े पहन लेता है, ऐसे ही वह (शरीरी) पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीर धारण कर लेता
है[*] । शरीर हरदम बदलता
है । इसलिये शरीरको लेकर जो कामनाएँ होती हैं, वे अपनी
नहीं हैं ।
शरीर-संसारकी इच्छाके कई नाम हैं;
जैसे‒कामना, आशा, वासना, तृष्णा आदि । अमुक वस्तु मिल जाय,
धन मिल जाय, भोग मिल जाय, कुटुम्ब मिल जाय, घर मिल जाय‒ये सब इच्छाएँ सच्ची नहीं हैं । ये इच्छाएँ सभी योनियोंमें
होती हैं । मनुष्यकी इच्छाएँ और होती हैं,
कुत्तेकी इच्छाएँ और होती है, सिंहकी इच्छाएँ और होती हैं ।
ऐसे हो गाय-भैंस, भेड़-बकरी, गधा, ऊँट आदिकी अलग-अलग इच्छाएँ होती हैं । तात्पर्य है कि शरीर भी
बदलते रहते हैं और इच्छाएँ भी बदलती रहती हैं । वृक्षोंको खाद तथा पानीकी इच्छा होती
है । ये मिलें तो वृक्ष हरे हो जाते हैं । ये न मिलें तो वे सूख जाते हैं । परन्तु
जिज्ञासा और लालसा‒ये दो इच्छाएँ केवल मनुष्यशरीरमें ही होती हैं,
अन्य शरीरोंमें नहीं होतीं । कारण कि अन्य शरीर भोगयोनियाँ हैं
। उनमें केवल भोगनेकी इच्छा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि
देही ॥
(गीता
२ । २२)
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