(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिज्ञासा और लालसा असुरों-राक्षसोंमें नहीं होती,
भूत-प्रेत-पिशाचमें नहीं होती । यह देवताओंमें हो सकती है,
पर उनमें भी भोग भोगनेकी इच्छा मुख्य रहती है । जैसे‒मनुष्यलोकमें
ज्यादा धनी लोगोंमें भोग भोगनेकी और धनका संग्रह करनेकी इच्छा मुख्य रहती है तो वे
भगवान्में नहीं लगते । कलकत्तेके एक धनी आदमीसे मैंने पूछा कि तुम्हारे पास इतने रुपये
हैं कि कई पीढ़ियोंतक जीवन-निर्वाह हो जाय,
फिर और रुपये कमाकर क्या करोगे ?
उसने बड़ी सज्जनतासे उत्तर दिया कि ‘स्वामीजी ! इसका उत्तर हमारे पास नहीं है ।’
केवल एक ही धुन है‒धन कमाओ,
धन कमाओ । उस धनका करेंगे क्या‒इस तरफ खयाल नहीं है । पूरा धन
भोग तो सकते नहीं; अतः छोड़कर मरना पड़ेगा ।
केवल भोगोंकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य कहलानेयोग्य
नहीं हैं । मनुष्य कहलानेयोग्य वही हैं,
जिनमें अपने स्वरूपकी जिज्ञासा और परमात्माकी लालसा
है । अपने स्वरूपको जाननेकी और
परमात्माको प्राप्त करनेकी इच्छा मनुष्यमें ही हो सकती है । यह सामर्थ्य मनुष्यमें
ही है । परन्तु इसको छोड़कर जो भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं,
उनमें मनुष्यपना नहीं है,
प्रत्युत पशुपना है । भागवतमें इसको पशुबुद्धि कहा गया है‒‘पशबुद्धिमिमां
जहि’ (१२ । ५ । २) । मैं कौन हूँ ? मेरा मालिक कौन है ?‒यह जाननेकी इच्छा मनुष्यबुद्धि है ।
इस दुनियामें एक अँधेरा, सबकी आँख में जो छाया ।
जिसके कारण सूझ पड़े नहीं, कौन हूँ मैं कहाँ से आया ॥
कौन दिशाको जाना मुझको, किसको देख मैं ललचाया ।
कौन है मालिक इस दुनिया का, किसने
रची है यह माया ॥
‒यह जिज्ञासा मनुष्यमें ही हो सकती है । पशुओंमें गाय बड़ी पवित्र
है । मल और मूत्र किसीका भी पवित्र नहीं होता,
पर गायका गोबर और गोमूत्र भी पवित्र होता है ! पवित्रताके लिये
गोमूत्र छिड़का जाता है, गोबरका चौका लगाया जाता है । ऐसी पवित्र होनेपर भी गायमें यह
जाननेकी शक्ति नहीं है कि मेरा स्वरूप क्या है ?
परमात्मा क्या है ?
इसको मनुष्य ही जान सकता है । मनुष्यजन्मके सिवाय और कोई जाननेकी
जगह नहीं है । यह मौका मनुष्यजन्ममें ही है । इस जन्ममें
ही हम अपने-आपको जान सकते हैं,
भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं, भगवान्में
प्रेम कर सकते हैं । अगर मनुष्यशरीरमें आकर यह काम नहीं किया तो मनुष्यशरीर निरर्थक
गया !
कामनाएँ सदा बदलती रहती हैं,
पर जिज्ञासा और लालसा सदा एक ही रहती है,
कभी बदलती नहीं । कारण कि ये दोनों खुदकी हैं । खुद कभी बदलता
नहीं, शरीर बदलता रहता है । ऐसे ही इच्छाएँ बदलती हैं,
भाव बदलते हैं, रहन-सहन बदलता है । जो बदलता है,
वह हमारा स्वरूप नहीं है । इसलिये शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को
कहा‒
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
(श्रीमद्भा॰ १२ । ५ । २)
‘राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मरूँगा ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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