(गत ब्लॉगसे आगेका)
वेदान्तमें ऐसी मान्यता है कि अभेदके बाद कुछ भी
बाकी नहीं रहता । अगर अभेदके बाद ईश्वरसे अभिन्नता मानें तो वेदान्तके अद्वैत सिद्धान्तमें
कमी आती है । अपने सिद्धान्तमें कमी न आ जाय, इसलिये
वेदान्तियोंने ईश्वरको कल्पित बता दिया;
क्योंकि कल्पित बतानेके सिवाय और कोई उपाय नहीं ।
परन्तु ईश्वर किसकी कल्पना है‒इसका उत्तर उनके पास नहीं है । वे द्वैतसे डरते हैं कि कहीं अपनेमें द्वैत न आ जाय । वास्तवमें
सत्ता एक ही (अद्वैत) है; परन्तु अपने रागके कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है । दूसरी
सत्ताका तात्पर्य संसारसे है, ईश्वरसे नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय)
है । दूसरी सत्ताका निषेध करनेके लिये वेदान्तने ईश्वरको भी कल्पित मान लिया । राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वरको कल्पित ! अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता
कैसे मिटेगी ? इसलिये ईश्वरको कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये । ईश्वर
कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है[1]
।
जीव सब एक हो जायँ तो (जीवभाव मिटनेपर) ‘ब्रह्म’ होता है । जो ऐश्वर्यसे युक्त है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति,
प्रलय आदिको जानता है,
वह ‘भगवान्’ है । ये बातें जीवमें नहीं होतीं । इसलिये सब जीव एक होनेपर
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय नहीं होता‒‘जगद्व्यापारवर्जम्’
(ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७) । कारण कि जीव ब्रह्मके साथ एक हो सकता है,
भगवान्के साथ नहीं । भगवान्के साथ उसका अभेद नहीं हो सकता,
पर अभिन्नता हो सकती है । श्रीएकनाथजी महाराजने भागवत,
एकादश स्कन्धकी टीकामें इसी अभिन्नताको अभेदभक्ति कहा है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्चते ॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
(गीता
१५ । १६-१७)
‘इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर अविनाशी)‒ये
दो प्रकारके ही पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा
जाता है ।’
‘उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’‒इस नामसे कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों
लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है ।’
|