मानवशरीरकी जो महिमा है, वह
आकृतिको लेकर नहीं है, प्रत्युत विवेकको लेकर ही है । सत् और असत्, जड़ और चेतन,
सार और असार, कर्तव्य और अकर्तव्य‒ऐसी जो दो-दो चीजें हैं,
उनको अलग-अलग समझनेका नाम ‘विवेक’ है । यह विवेक परमात्माका दिया हुआ और अनादि है । इसलिये यह पैदा नहीं
होता, प्रत्युत जाग्रत् होता है । सत्संगसे यह विवेक जाग्रत्
और पुष्ट होता है । सत्संगमें
भी खूब ध्यान देनेसे, गहरा विचार करनेसे ही विवेक जाग्रत् होता है,
साधारण ध्यान देनेसे नहीं होता । आजकल प्रायः यह देखनेमें आता
है कि सत्संग करनेवाले, सत्संग करानेवाले, व्याख्यान देनेवाले भी गहरी पारमार्थिक बातोंको समझते नहीं ।
वे जड़-चेतनके विभागको ठीक तरहसे जानते ही नहीं । थोड़ी जानकारी होनेपर व्याख्यान देने
लग जाते हैं । जिनका विवेक जाग्रत् हो जाता है,
उनमें बहुत विलक्षणता,
अलौकिकता आ जाती है ।
साधकको सबसे पहले शरीर जड़ और शरीरी (-चेतन)-का विभाग समझना चाहिये
। शरीर और शरीरीसे आरम्भ करके संसार और परमात्मातक विवेक होना चाहिये । शरीर और शरीरीका
विवेक मनुष्यके सिवाय और जगह नहीं है । देवताओंमें विवेक तो है,
पर भोगोंमें लिप्त होनेके कारण वह विवेक काम नहीं करता ।
शरीर और शरीरीके विभागको जाननेवाले मनुष्य बहुत कम हैं । इसलिये
सत्संगके द्वारा इस विभागको जाननेकी खास जरूरत है । शरीर जड़ है और स्वयं (आत्मा) चेतन
है । स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर प्रकृतिका अंश है । चेतन अलग है और जड़ अलग है
। मुक्ति चेतनकी होगी, जड़की नहीं; क्योंकि बन्धन चेतनने स्वीकार किया है । जड़ तो हरदम बदल रहा
है और नाशकी तरफ जा रहा है । हमारी जितनी उम्र बीत गयी है, उतने
दिन तो हम मर ही गये हैं । ‘मरना’ शब्द भले ही खराब लगे, पर
बात सच्ची है । जन्मके समय जीनेके
जितने दिन बाकी थे, उतने दिन अब बाकी नहीं रहे । जितने दिन बीत गये,
उतने दिन तो मर गये,
अब कितने दिन बाकी हैं,
इसका पता नहीं है । जीवनका जो समय चला गया,
नष्ट हो गया, वह जड़-विभागमें हुआ है,
चेतन-विभागमें नहीं । चेतन-विभागमें
मृत्यु नहीं है । उसकी कोई उम्र नहीं है । वह अमर है । शरीर मरता है, आत्मा
नहीं मरता । इस प्रकार आरम्भसे ही जड़-चेतनके विभागको समझ लेना चाहिये । जो चेतन-विभाग है,
वह परमात्माका है और जो जड़-विभाग है,
वह प्रकृतिका है । गीतामें आया है‒
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । (१३ । १९)
प्रकृति और
पुरुष‒दोनों अनादि तो हैं, पर दोनोंमें पुरुष (चेतन) अनादि तथा अनन्त है,
और प्रकृति अनादि तथा सान्त है । कई विद्वान् प्रकृतिको भी अनन्त
मानते हैं, पर यह दार्शनिक मतभेद है । यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि जो अपनेको भी नहीं जानता और दूसरेको भी नहीं जानता, उसका
नाम ‘जड़’ है । जो अपनेको भी जानता है और दूसरेको भी जानता
है, उसका नाम
‘चेतन’ है । जाननेकी शक्ति चेतनता है । यह शक्ति जड़में नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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