गाय विश्वकी माता है‒‘गावो विश्वस्य
मातरः ।’ सूर्य, वरुण, वायु आदि देवताओंको यज्ञ,
होममें दी हुई आहुतिसे जो खुराक,
पुष्टि मिलती है, वह गायके घीसे ही मिलती है । होममें गायके घीकी ही आहुति दी
जाती है, जिससे सूर्यकी किरणें पुष्ट होती हैं । किरणें पुष्ट होनेसे
वर्षा होती है और वर्षासे सभी प्रकारके अन्न,
पौधे, घास आदि पैदा होते हैं,
जिनसे सम्पूर्ण स्थावर-जंगम,
चर-अचर प्राणियोंका भरण-पोषण होता है[*]।
हिन्दुओंके गर्भाधान,
जन्म, नामकरण आदि जितने संस्कार होते हैं,
उन सबमें गायके दूध,
घी, गोबर आदिकी मुख्यता होती है । द्विजातियोंको जो यज्ञोपवीत दिया
जाता है, उसमें गायका पंचगव्य (दूध,
दही, घी, गोबर और गोमूत्र) का सेवन कराया जाता है । यज्ञोपवीत-संस्कार
होनेपर वे वेद पढ़नेके अधिकारी होते हैं । अच्छे ब्राह्मणका लड़का भी यज्ञोपवीत-संस्कारके
बिना वेद पढ़नेका अधिकारी नहीं होता । जहाँ विवाह-संस्कार होता है, वहाँ भी गायके गोबरका
लेप करके शुद्धि करते हैं । विवाहके समय गोदानका भी बहुत माहात्म्य है । पुराने जमानेमें
वाग्दान (सगाई) के समय बैल दिया जाता था । जननाशौच और मरणाशौच मिटानेके लिये गायका
गोबर और गोमूत्र ही काममें लिया जाता है; क्योंकि गायके गोबरमें लक्ष्मीका और
गोमूत्रमें गंगाजीका निवास है ।
जब मनुष्य बीमार हो जाता है,
तब उसको गायका दूध पीनेके लिये देते हैं; क्योंकि गायका दूध तुरंत बल, शक्ति
देता है । अगर बीमार मनुष्यको अन्न भी न पचे तो उसके पास गायके घी और खाद्य पदार्थोंकी
अग्निमें आहुति देनेपर उसके धुएँसे उसको खुराक मिलती है । जब मनुष्य मरने लगता है, तब
उसके मुखमें तुलसीमिश्रित गंगाजल या गायका दही देते हैं । कारण कि कोई मनुष्य यात्राके
लिये रवाना होता है तो उस समय गायका दही लेना मांगलिक होता है । जो सदाके लिये यहाँसे
रवाना हो रहा है, उसको गायका दही अवश्य देना चाहिये, जिससे
परलोकमें उसका मंगल हो । अन्तकालमें मनुष्यको जैसे गंगाजल देनेका माहात्म्य है, वैसा
ही माहात्म्य गायका दही देनेका है ।
वैतरणीसे बचनेके लिये गोदान किया जाता है । श्राद्ध-कर्ममें गायके दूधकी खीर बनायी जाती है; क्योंकि
पवित्र होनेसे इस खीरसे पितरोंकी बहुत ज्यादा तृप्ति होती है । मनुष्य, देवता, पितर
आदि सभीको गायके दूध, घी आदिसे पुष्टि मिलती है । अतः गाय विश्वकी माता
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘किसान और
गाय’ पुस्तकसे
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजा ॥
(मनु॰ ३ । ७६)
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