शास्त्रोंमें संतोंकी बहुत महिमा मिलती है । स्वयं श्रीभगवान्ने भी अपने भक्तोंकी महिमा गायी है
। संत या भक्त किसी वेशभूषाका नाम नहीं है, प्रत्युत भीतरके भावका नाम है । इस
प्रकारका भाव रखनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज,
माता-बहिन कोई भी हो सकते हैं ।
सन्त कहते ही हमारी दृष्टि साधु-आश्रमपर जाती है; क्योंकि साधु-आश्रममें बड़े-बड़े तत्त्वज्ञ, सन्त, महापुरुष एवं ज्ञानी हुए हैं, भगवत्प्रेमी हुए हैं । परन्तु
गृहस्थोंमें भी कम नहीं हुए हैं । बहनोंमें भी मीराबाई आदि बड़ी-बड़ी सन्त हुई हैं, जिनके स्मरणमात्रसे अन्तःकरण शुद्ध
होता है । गृहस्थोंमें भी बडे-बड़े और विचित्र भक्त हुए हैं ।
इतना ही नहीं, साधारण-से-साधारण, पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी तथा मूर्ख-से-मूर्ख व्यक्ति भी उस तत्त्वको जानकर सन्त-महात्मा बन सकता है ।
संसारमें कोई भी दो व्यक्ति, धन, सम्पत्ति, वैभव आदिमें समान नहीं हो सकते, किन्तु परमात्मतत्त्व-प्राप्तिमें सब समान होते हैं । जो तत्त्व
वसिष्ठ, नारद एवं सनकादिको
प्राप्त हुआ है,
वही आज भी प्राप्त
होता
है; क्योंकि
वह सत्य तत्त्व एक है । वहाँ पहुँचनेपर सब एक हो जाते हैं ।
हाँ, साधनमें फर्क हो सकता है‒
पहुँचे-पहुँचे एक मत,
अण पहुँचे मत और ।
सन्तदास घड़ी अरठकी, ढुरै एक ही ठौर ॥
अरठमें बँधे घड़े या पीपे कुएँमेंसे जल लेकर चलते हैं तो उनकी ऊँची-नीची विभिन्न स्थितियाँ होती हैं; किन्तु सबका जल एक ही जगह गिरता है । इसी प्रकार जितने भी साधन-भेद होते हैं, वे
सब अनपहुँचे व्यक्तियोंके होते हैं । पहुँचे हुए महात्माओंकी वास्तविक स्थितिमें फर्क नहीं होता, साधनाओंकी भिन्नताके कारण मार्गोंकी भिन्नता
वहाँ भी रहती है; किन्तु लक्ष्यतक पहुँचनेपर
सब एक ही तत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं ।
गीतामें दो निष्ठाएँ बतायी हैं‒ज्ञानयोग और कर्मयोग‒
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन
योगिनाम् ।
(३ । ३)
श्रीमद्भागवतमें मनुष्यके कल्याणके लिये‒
‘योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधित्सया ।’
ज्ञानयोग, भक्तियोग
और कर्मयोग‒ये तीन योग बताये गये हैं । ऐसे ही द्वैत, अद्वैत,
विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, अद्वैताद्वैत, अचित्त्यभेदाभेद आदि अनेक अवान्तर
मार्ग शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं । ये अनेक भेद साधनकी दृष्टिसे हैं । पर
साध्य-तत्त्वकी प्राप्ति होनेपर ये भेद नहीं रहते । जो साध्य-तत्त्वतक पहुँच जायँ और मार्गोंकी दृष्टिसे
भी ठीक-ठीक विवेचन कर दें, ऐसे
सन्त बहुत ही कम मिलते हैं । अब हैं या नहीं, यह पता नहीं;
भगवान् ही जानें । खोज करने और ढूँढनेपर भी, ऐसे महात्मा
बहुत कम देखनेमें आये हैं । जो वास्तवमें पहुँचे हुए हैं और किसी सम्प्रदाय अथवा मतका कोई आग्रह भी नहीं रखते । सब कुछ जाने हुए, समझे हुए, सुलझे हुए सन्त बहुत ही कम देखनेमें आये हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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