(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम इतिहास, भागवत
आदि ग्रन्थोंको देखते हैं तो उनमें सन्तों, राजर्षियों, बड़े-बड़े त्यागियों, तपस्वियों तथा प्रेमियोंका वर्णन मिलता है । उनमें भी ठीक-ठीक तत्त्वतक पहुँचनेवाले बहुत ही कम मिलते हैं; फिर आजकलकी
तो बात ही क्या है । लोग भजन-ध्यान आदिको फालतू समझने लगे हैं । जो वास्तवमें मनुष्य-जीवनकी सफलता है, उस तत्त्वप्राप्तिको समझते नहीं,
इतना ही नहीं, समझना चाहते भी नहीं ।
इसकी उपेक्षा करते हैं । पशुओंकी भाँती ही अपना समय व्यर्थ गवाँ रहे हैं‒
कामोपभोगपरमा एतावदिति
निश्चिताः
।
(गीता १६ । ११)
नान्यदस्तीति वादिनः
।
(गीता २ । ४२)
काम और भोगके सिवाय कुछ है ही नहीं । खाना, कमाना और भोगना‒बस, इतना ही सब कुछ है । उनके मतमें और कुछ है ही नहीं । वे इसीमें उलझे रहते हैं । अब उनसे क्या कहा जाय ? सज्जनो ! वे तो पशुओंसे भी नीचे हैं । उनको
पशुओंके
समकक्ष
रखा जाय तो पशु नाराज
हो सकते
हैं कि हमारी
बेइज्जती
क्यों
करते
हैं ?
हम तो अपने कर्मोंका
फल भोगकर
मनुष्य-जन्मकी ओर जा रहे हैं । परन्तु
पाप करनेवाले
मनुष्य
तो नरकों
एवं नीच योनियोंकी ओर अग्रसर हो रहे हैं । यह कितना बड़ा अन्तर है
! इसीलिये
कहा गया है‒
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
(मानस, सुन्दर॰ ४६ । ७)
नरकोंका निवास अच्छा है, पर विधाता दुष्टोंका संग न दें, क्योंकि नरक भोगनेसे तो पाप नष्ट होते हैं, जब कि दुष्टोंके संगसे पाप पैदा होते हैं और आगे नरकोंकी तैयारी होती है ।
सज्जनो ! थोड़ा ध्यान दें । सन्तोंको
पहचाननेमें वे ही
समर्थ हैं,
जो सच्चे
हृदयसे
इस मार्गपर
चलते
हैं । केवल अन्धानुकरण ही नहीं करते, प्रत्युत विवेकपूर्वक खूब गहरे उतरकर
इन पारमार्थिक विषयोंको अच्छी प्रकार समझते भी हैं । इससे
भी आगे समझी
हुई बातोंको
आचरणमें
लाते हैं । वे सन्तोंको
कुछ-कुछ समझ पाते
हैं । वे भी इतना
ही समझ पाते
हैं कि ये सन्त
हमसे
श्रेष्ठ
हैं । परन्तु ये कहाँतक पहुँच चुके हैं‒यह समझनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है । इस बातको या तो वे स्वयं समझते हैं या उनसे भी बढ़कर समझते हैं उनके भगवान् ।
जैसे सूर्य प्रकाशित होता है तो दिन निकल आता है, ऐसे ही सन्तोंका
संग करनेसे
हृदयमें
प्रकाश
होता
है । मनुष्यको
दीखने
लगता
है कि मुझमें
कहाँ-कहाँ
कमी है और इसे कैसे
दूर किया
जाय ?
उपाय
सूझने
लगते
हैं । सन्तोंके संसर्गमात्रसे ही, बिना कहे-सुने, बिना पूछे भी स्वतः ही अन्तःकरणमें विलक्षण भाव पैदा होते हैं । एक प्रकारका विलक्षण प्रकाश मिलता है । इसलिये जिसको सन्तोंका संग मिल गया हो, उसको अपने ऊपर भगवान्की विशेष कृपा समझनी चाहिये‒
जब द्रवै
दीनदयाल
राघव,
साधु संगति
पाइये
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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