(गत ब्लॉगसे आगेका)
सन्त भगवान्का हृदय हैं । जिस प्रकार बूढ़े माँ-बाप अपनी छिपी हुई पूँजी, अपनी विशेष कृपापात्र सन्तानको ही बताते हैं, देते हैं, उसी प्रकार भगवान् अपने प्यारे सन्त जो कि उनके हृदय-धन हैं‒उनके सामने खोलकर रख देते हैं, जिनपर विशेष कृपा करते हैं । जैसे
सन्तोंके
धन भगवान्
हैं,
ऐसे ही भगवान्के धन सन्त
हैं । वे जब कृपा करते
हैं तो हमें
सन्तोंसे
मिला
देते
हैं तथा कहते
हैं कि भाई ! अब तुम सत्संग
करो और लाभ ले लो ।
अब प्रश्न उठता है कि हम तो सन्तोंको पहचान सकते नहीं, क्या करें ? तो आप भगवान्से सच्चे हृदयसे प्रार्थना करें कि हे नाथ ! हमें आपके जो प्यारे भक्त हैं, सन्त-पुरुष हैं‒उनके दर्शन कराइये । ऐसे आप भगवान्से कहें अथवा आपके हृदयमें उत्कण्ठा हो जाय तो आपको कोई-न-कोई सन्त अवश्य ही मिल जायेंगे ।
जैसे, फल चलकर तोतेके पास नहीं जाता, वरन् तोता स्वयं
फलके पास आकर उसे चोंच लगाता है । इसी प्रकार सच्चे
जिज्ञासुओंको सन्त-महात्मा ढूँढ़ते फिरते हैं । यद्यपि माँसे
अधिक आवश्यकता बालकको होती है; किन्तु माँके मनमें
बालककी जितनी गरज होती है, उतनी बालकके मनमें
माँके लिये नहीं होती । जब दूधकी आवश्यकता होती है,
तभी वह माँको याद करता है; किन्तु माँ
सब समय उसकी
याद करती है । बच्चेको भूख लगनेपर माँके स्तनोंसे दूध टपकने लगता है, उसी प्रकार
सच्चे
जिज्ञासुके प्रति सन्तोंका ज्ञान-अमृत
टपकने
लगता
है । वे अपने-आपको रोक
नहीं
सकते,
बस,
कोई मिल जाय लेनेवाला
।
किन्तु संसारके लोग इन बातोंको क्या जानें ? रात-दिन हाय रुपया ! हाय रुपया !! भोग-संग्रह, सुख-आराम, क्लब, नाटक-सिनेमा, तड़क-भड़कमें लिप्त मनुष्य क्या समझें इस तत्त्वको । इसीलिये सन्त उनसे छिपे रहते हैं‒
हरि हीरा री गाँठड़ी,
गाहक बिनु मत खोल ।
आसी हीरा रो पारखी,
बिकसी
महँगे
मोल ॥
सच्चे
जिज्ञासु, साधक ही इन ज्ञानरूपी हीरोंका मोल समझ सकते हैं । इसलिये सन्त-महापुरुष अपनी ज्ञान-गठरी उनके
सामने ही खोलते हैं ।
आज बड़ी उम्रके सभ्य लोग भी खेल-तमाशोमें इकट्ठे होते हैं । सिनेमा, क्लब आदिमें जाते हैं । कभी यह बच्चोंकी बात थी । बड़ी अवस्थाके लोग घरका, समाजका काम करते थे, पारमार्थिक बातोंको सोचते थे, किन्तु आज बड़े-बूढ़े
हो जानेपर
भी खेल-तमाशोंमें ही लगे रहते हैं । बचपन
आ गया बड़े-बूढ़ोंमें
भी । अब किसको
कहें
और कौन सुने
नीति-धर्मकी
बात ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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