(गत ब्लॉगसे आगेका)
आदि अविद्या
अटपटी,
घट-घट बीच अड़ी ।
कहो कैसे समझाइये, कूए भाँग पड़ी ॥
जब कूएँके जलमें ही भाँग घुल गयी, तब सभीको नशा आ गया । अब कौन समझे ? हमें चेत करना चाहिये ।
सन्त-महात्माओंने जिस तत्त्वको बड़ी मेहनत करके, त्याग-तपस्यासे प्राप्त किया है, उसको वे बड़े खुले हृदयसे देनेके लिये तैयार बैठे हैं । कोई लेता है, तो खुश होते हैं, प्रसन्न होते हैं । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार दूकानदारका जितना अधिक माल बिकता है, वह उतना ही अधिक खुश होता है । दूकानदारको तो स्वयंको लाभ होता है, पर सन्त-महात्मा संसारका कल्याण होनेसे प्रसन्न होते हैं‒
हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार
सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं
।
सपनेहुँ प्रभु
परमारथ नाहीं
॥
(मानस, उत्तर॰ ४७ । ५-६)
बिना कोई स्वार्थहित करनेवाले संसारमें दो ही हैं‒आप (श्रीभगवान्) और आपके सेवक (सन्त-महात्मा) । भगवान् और भगवान्के प्यारे भक्त बिना ही कारण हित करते रहते हैं । जैसे, लोभीकी धनमें और भोगीकी भोगमें प्रीति होती है । उससे भी विलक्षण प्रीति उनको प्राणिमात्रके हितमें
होती है ।
मेरा भक्तोंकी संगतिमें रहनेका काम पडा है । मेरे मनमें बात आयी कि इतने ऊँचे महापुरुषोंका संग मुझे मिला है, किन्तु
मैं ऐसे सन्तोंके संगका पात्र नहीं हूँ । मैंने एक पहुँचे हुए सन्तसे प्रश्न किया‒महाराज ! भगवान्के घरमें अँधेरा है, उनके यहाँ सावधानी नहीं है । तभी तो हम-जैसे लोगोंको ऐसे-ऐसे ऊँचे दर्जेके सन्त-महात्माओंके दर्शन हुए । हम तो इसके पात्र नहीं । क्योंकि उत्तम वस्तु तो योग्य पात्रको ही मिलनी चाहिये । परन्तु हमारे-जैसे पात्रको भी ऐसी ऊँचे दर्जेकी बातें मिलती है‒तो यह क्या है ?
अंधाधुंध सरकार
है तुलसी
भजो निसंक
।
खीझे दीन्हो
परमपद,
रीझे दीन्ही
लंक ॥
यह कोई हिसाब है ? गुस्सा आनेपर रावणको परम पद दे दिया और प्रसन्न होनेपर विभीषणको राजगद्दी दी । ऐसा पूछनेपर मुझे जवाब मिला कि ‘बात
ठीक है । कन्याके
लिये
योग्य
वर ही ढूँढना
चाहिये
। किन्तु
कन्या बड़ी हो जाय और योग्य
वर न मिले,
तो जैसा
वर मिले, उसके
साथ ही ब्याहना
पड़ता
है ।’ तो ऐसे तो हमलोग
और हमें
मिलें
ऐसी मार्मिक
बातें !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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