।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
सन्त-महिमा



(गत ब्लॉगसे आगेका)

आदि अविद्या अटपटी, घट-घट बीच अड़ी
कहो  कैसे  समझाइये,    कूए  भाँग  पड़ी

जब कूएँके जलमें ही भाँग घुल गयी, तब सभीको नशा गया अब कौन समझे ? हमें चेत करना चाहिये

सन्त-महात्माओंने जिस तत्त्वको बड़ी मेहनत करकेत्याग-तपस्यासे प्राप्त किया है, उसको वे बड़े खुले हृदयसे देनेके लिये तैयार बैठे हैं कोई लेता है, तो खुश होते हैंप्रसन्न होते हैं ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार दूकानदारका जितना अधिक माल बिकता है, वह उतना ही अधिक खुश होता है दूकानदारको तो स्वयंको लाभ होता है, पर सन्त-महात्मा संसारका कल्याण होनेसे प्रसन्न होते हैं‒

हेतु रहित जग  जुग उपकारी
तुम्ह तुम्हार सेवक  असुरारी
स्वारथ मीत सकल जग माहीं
सपनेहुँ प्रभु   परमारथ  नाहीं
                           (मानस, उत्तर ४७ -)

बिना कोई स्वार्थहित करनेवाले संसारमें दो ही हैं‒आप (श्रीभगवान्) और आपके सेवक (सन्त-महात्मा) । भगवान् और भगवान्के प्यारे भक्त बिना ही कारण हित करते रहते हैं जैसे, लोभीकी धनमें और भोगीकी भोगमें प्रीति होती है उससे भी विलक्षण प्रीति उनको प्राणिमात्रके हितमें होती है

मेरा भक्तोंकी संगतिमें रहनेका काम पडा है मेरे मनमें बात आयी कि इतने ऊँचे महापुरुषोंका संग मुझे मिला है, किन्तु मैं ऐसे सन्तोंके संगका पात्र नहीं हूँ मैंने एक पहुँचे हुए सन्तसे प्रश्न किया‒महाराज ! भगवान्के घरमें अँधेरा है, उनके यहाँ सावधानी नहीं है तभी तो हम-जैसे लोगोंको ऐसे-ऐसे ऊँचे दर्जेके सन्त-महात्माओंके दर्शन हुए हम तो इसके पात्र नहीं क्योंकि उत्तम वस्तु तो योग्य पात्रको ही मिलनी चाहिये परन्तु हमारे-जैसे पात्रको भी ऐसी ऊँचे दर्जेकी बातें मिलती है‒तो यह क्या है ?

अंधाधुंध सरकार है तुलसी भजो निसंक
खीझे दीन्हो परमपद, रीझे दीन्ही लंक


यह कोई हिसाब है ? गुस्सा आनेपर रावणको परम पद दे दिया और प्रसन्न होनेपर विभीषणको राजगद्दी दी । ऐसा पूछनेपर मुझे जवाब मिला कि ‘बात ठीक है । कन्याके लिये योग्य वर ही ढूँढना चाहिये किन्तु कन्या बड़ी हो जाय और योग्य वर मिले, तो जैसा वर मिलेउसके साथ ही ब्याहना पड़ता है ।’ तो ऐसे तो हमलोग और हमें मिलें ऐसी मार्मिक बातें !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे