(गत ब्लॉगसे आगेका)
वे सन्त जाते-जाते बोले कि ‘भाई ! जब भी कोई शंका हो तो यह मेरा पता है, आ जाना या मुझे समाचार कर देना, मैं आ जाऊँगा ।’ इसपर
उन सज्जनने
पूछा‒‘महाराज ! अभी आपको किसने समाचार भेजा था कि
आप पधारिये ?’ तो वे सन्त बोले‒‘मेरा घोड़ा अड़ गया
था, इसलिये
मुझे
आना पड़ा ।’ तो उन सज्जनने
कहा‒‘अबकी
बार फिर आपका
घोड़ा
अड़ जाय तब फिर आ जाना
।’ तात्पर्य
यह है कि जब साधककी
सच्ची
जिज्ञासा होती
है तो सन्तोंका
घोड़ा
अड़ जाता
है ।
सन्तोंकी बात क्या ! स्वयं श्रीभगवान्के कानोंमें भी सच्ची पुकार तुरन्त पहुँच जाती है और वे किसी सन्तके साथ हमारी भेंट करा देते हैं‒
सच्चे हृदयकी
प्रार्थना
जो भक्त सच्चा गाय है ।
तो भक्त-वत्सल
कानमें
वह पहुँच
झट ही जाय है ॥
जैसे टेलीफोन एक्सचेंज हमारी लाइन हमारे इच्छित व्यक्तिसे मिला देता है, उसी प्रकार भगवान् हमारी लाइन सन्तोंसे मिला देते हैं । पर हमारी लगन सच्ची होनी चाहिये ।
हमारी
सच्ची
लगन हो तो भगवान्में शक्ति
नहीं
है कि वे हमारी
लगनको
ठुकरा
दें । हैं किसलिये
भगवान् ? छोटा
बालक
है और माँ उसका
पालन
न करे,
तो माँ है किस लिये ?
बालकके
लिये
ही तो माँ है । इसी प्रकार यदि सन्त-महात्मा
साधकोंको
कुछ बात नहीं
बतायेंगे
तो वे जीते
क्यों
हैं ?
उनका क्या उपयोग है ? सज्जनो ! जब वे अपना कार्य पूरा कर चुके, तो वे हमारे लिये ही हैं । उनसे पूछकर हम अपना कल्याण कर लें । इसीलिये हमें सच्ची जिज्ञासा बढ़ानी चाहिये । सन्त-महात्माओंकी परीक्षा करनेकी जरूरत नहीं है । हम सच्चे
हृदयसे परमार्थ-मार्गमें चलेंगे, तो हमारा काम हो ही जायगा । इसमें
सन्देह
नहीं
है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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