(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह जगत् भगवान्का आदि अवतार है‒ ‘आद्योऽवतारः
पुरुषः परस्य’ ( श्रीमद्भा॰ २ । ६ । ४१) । तात्पर्य है कि भगवान् ही जगत्-रूपसे प्रकट हुए हैं । परन्तु
जीवने भोगासक्तिके कारण जगत्को भगवद्रूपसे स्वीकार न करके नाशवान् जगत्-रूपसे ही
धारण कर रखा है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता
७ । ५) । इस धारणाको मिटानेके
लिये साधकको दृढ़तासे ऐसा मानना चाहिये कि जो दीख रहा है, वह
भगवान्का स्वरूप है और जो हो रहा है,
वह भगवान्की लीला है । ऐसा मानने (स्वीकार करने)
पर जगत् जगत्-रूपसे नहीं रहेगा और ‘भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है’‒इसका
अनुभव हो जायगा । दूसरे शब्दोंमें,
संसार लुप्त हो जायगा और केवल भगवान् रह जायँगे । कारण कि प्रत्येक
वस्तु एवं व्यक्तिको भगवान्का स्वरूप और प्रत्येक क्रियाको
भगवल्लीला माननेसे भोगासक्ति,
राग-द्वेष नहीं रहेंगे । भोगासक्तिका नाश होनेपर
जो क्रियाएँ पहले लौकिक दीखती थीं, वही क्रियाएँ अलौकिक भगवल्लीला-रूपसे दीखने लगेगी
और जहाँ पहले भोगासक्ति थी, वहाँ भगवत्प्रेम हो जायगा ।
साधकको ऐसा मानना चाहियें कि भगवान् जैसा रूप धारण करते हैं,
उसीके अनुरूप लीला करते हैं[*]
। जब वे अर्चावतार अर्थात् मूर्तिका रूप धारण करते हैं,
तब वे मूर्तिकी तरह ही अचल रहनेकी लीला करते हैं । अगर वे अचल
नहीं रहेंगे तो वह अर्चावतार कैसे रहेगा ?
भगवान्ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य,
कच्छप, वराह आदि रूप भी धारण किये । उन्होंने जैसा रूप धारण किया,
वैसी ही लीला की । जैसे,
वराहावतारमें भगवान्ने सूअर बनकर लीला की और वामनावतारमें ब्रह्मचारी
ब्राह्मण बनकर लीला की ।
भगवल्लीलाको पढ़ने-सुननेसे अन्तःकरण शुद्ध होता है, संसारकी
आसक्ति मिटती है और भगवान्में प्रेम होता है । ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर,
ब्रह्माजी, सनकादिक ऋषि, देवर्षि नारद आदि भी भगवान्की लीलाओंको गाकर और सुनकर प्रेममग्न
हो जाते हैं । भगवान् अवतार लेकर जिन स्थानोंमें लीलाएँ करते हैं,
वे स्थान भी इतने पवित्र हो जाते हैं कि उनमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक
निवास करनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है । इसका कारण यह है कि भगवान् मात्र जीवोंका
कल्याण करनेके उद्देश्यसे ही अवतार लेकर लीलाएँ करते हैं‒‘नृणां
निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।’ (श्रीमद्भा॰ १० । २१ । १४) ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
धर्मसंरक्षणार्थाय
धर्मसंस्थापनाय च ॥
तैस्तैर्वेषैश्च
रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव ।
( महाभारत, आश्व॰ ५४ । १३-१४)
‘मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण
करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ ।’
यदा
त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन
।
तदाहं
देववत् सर्वमाचरामि न संशयः
॥
यदा
गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन ।
तदा
गन्धर्ववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥
नागयोनौ
यदा चैव तदा वर्तामि नागवत् ।
यक्षराक्षसयोन्योस्तु
यथावद् विचराम्यहम् ॥
(महा॰ आद्य॰ ५४ । १७-१९)
‘भृगुनन्दन जब मैं देवयोनिमें अवतार लेता हूँ, तब देवताओंकी ही भाँती सारे आचार-विचारका
पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है ।’
‘जब मैं गन्धर्वयोनिमें प्रकट होता हूँ, तब मेरे
सारे आचार-विचार गन्धर्वोंके ही समान होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।’
‘जब मैं नागयोनिमें जन्म ग्रहण करता हूँ, तब नागोंकी
तरह बर्ताव करता हूँ । यक्षों और राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होनेपर मैं उन्हीके आचार-विचारका
यथावत्-रूपसे पालन करता हूँ ।’
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