कर्म, क्रिया और लीला‒तीनों एक दीखते हुए भी वास्तवमें सर्वथा भिन्न
हैं । जो कर्तृत्वाभिमानपूर्वक किया जाय तथा अनुकूल-प्रतिकूल
फल देनेवाला हो, वह ‘कर्म’
होता है । जो कर्तृत्वाभिमान-पूर्वक न की जाय तथा
जो फल देनेवाली भी न हो, वह ‘क्रिया’
होती है; जैसे‒श्वासोंका
चलना, आँखोंका खुलना और बन्द होना आदि । जो क्रिया कर्तृत्वाभिमान
तथा फलेच्छासे रहित तो होती ही है, साथ-साथ दिव्य तथा दुनियामात्रका हित करनेवाली भी
होती है, वह ‘लीला’
होती है । सांसारिक लोगोंके द्वारा ‘कर्म’ होता
है, मुक्त पुरुषोंके द्वारा ‘क्रिया’ होती
है और भगवान्के द्वारा ‘लीला’
होती है‒
‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’
(ब्रह्मसूत्र
२ । १ । ३३)
‘ईश्वरका सृष्टि रचना आदि कार्य लोकमें तत्त्वज्ञ महापुरुषोंकी तरह केवल लीलामात्र
है ।’
भगवानकी छोटी-से-छोटी तथा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया ‘लीला’ होती है । लीलामें भगवान् सामान्य मनुष्यों-जैसी क्रिया करते
हुए भी निर्लिप्त रहते हैं[*]
। भगवानकी लीला दिव्य होती है‒‘जन्म
कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९) । यह दिव्यता देवताओंकी दिव्यतासे भी विलक्षण होती है । देवताओंकी
दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे होनेके कारण सापेक्ष और सीमित होती है, पर भगवान्की
दिव्यता निरपेक्ष और असीम होती है । यद्यपि जीवन्मुक्त,
तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुषोंकी क्रियाएँ भी दिव्य होती हैं,
तथापि वे भी भगवल्लीलाके समान नहीं होतीं । भगवान्की साधारण
लौकिक लीला भी अत्यन्त अलौकिक होती है । जैसे भगवान्की रासलीला लौकिक दीखती है,
पर उसको पढ़ने-सुननेसे साधककी कामवृत्तिका नाश हो जाता है[†]
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे
(गीता
४ । १३)
‘उस (सृष्टि-रचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ
अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान ।’
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा
।
(गीता ४ । १४)
‘कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते ।’
भक्ति परां भगवति
प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः ॥
(श्रीमद्भा॰
१० । ३३ । ४०)
‘परीक्षित् ! जो धीर पुरुष ब्रजयुवतियोंके साथ भगवान् श्रीकृष्णके इस चिन्मय रास-विलासका
श्रद्धाके साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान्के चरणोंमें पराभक्तिकी प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने
हृदयके रोग-कामविकारसे छुटकारा पा जाता है । उसका कामभाव सदाके लिये नष्ट हो जाता है
।’
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