संसारके दो विभाग हम देखते हैं‒एक विभाग तो हमें मिला हुआ है,
जिसको हम अपना मानते हैं; और एक विभाग हमें मिला नहीं है,
पर दीखनेमें आता है । देखा हुआ तो मिला नहीं और मिला हुआ रहेगा
नहीं । मिले हुएके साथ न तो हम रहेंगे और न वह हमारे साथ
रहेगा‒यह हमारा अनुभव है । फिर हम किसके भरोसे बैठे हैं । किसके आधारसे हम यहाँ रह
रहे हैं ?
हमारा आधार एक परमात्मा हैं । उनके आधारसे ही हम टिके हुए हैं
। जो दीखता है और जो मिला हुआ है, इसके आधारपर हम नहीं रह सकते । कारण कि दीखनेवाला मिलता नहीं और जो मिला है, वह टिकता नहीं ।
‘है’‒रूपसे एक परमात्मा मौजूद हैं,
उन्हींके अन्तर्गत यह संसार दिखायी दे रहा है‒
जासु सत्यता तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
(मानस १ । ११७
। ४)
परमात्माकी सत्यतासे ही यह जड़ (असत्) माया सत्य दीखती है । इसका
कारण क्या है ? ‘मोह सहाया’‒ मूढ़ताके कारण असत् माया
सत्य दीखती है । कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते‒इस अधूरे
ज्ञानका नाम मूढ़ता है, अज्ञान है । कुछ भी न जानें, इसको मूढ़ता नहीं कहते । जैसे,
पत्थरको हम मूढ़ नहीं कहते । ऐसा नहीं कहते कि यह पत्थर बड़ा मूढ़
है, अज्ञानी है । मूढ़ता अधूरी जानकारीको कहते हैं । संसार
सच्चा नहीं है‒यह हम जानते हैं,
फिर भी हम उसको सच्चा मानते हैं, यह
मूढ़ता है ।
सुननेपर, पुस्तकोंके
पढ़नेपर और विचार करनेपर तो यह दीखता है कि पहले यह संसार था नहीं और पीछे रहेगा नहीं, फिर
भी इसको ‘है’ मानकर इसमें राग-द्वेष करते हैं‒यह मूढ़ताका नतीजा
है । जो पहले नहीं था और अन्तमें
भी नहीं रहेगा, उसको बीचमें भी, ‘नहीं’ मान लेना ज्ञान है, बोध है । जैसे,
स्वप्न आनेसे पहले स्वप्न नहीं था और नींद खुलनेके बाद भी स्वप्न
नहीं रहेगा; अतः बीचमें भी स्वप्न नहीं है,
केवल दीखता है । जो आदि और अन्तमें
नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒यह सिद्धान्त है ।
यह बात बहुत विशेष ध्यान देनेकी है कि यह संसार निरन्तर
‘नहीं’ में जा रहा है, अभावमें
जा रहा है । जैसे,
हमारा बचपन चला गया,
नहीं रहा । जितने प्राणी हैं,
वे भी ‘नहीं’ में जा रहे हैं । इनमें नहीं रहना ही सत्य है । जैसे
कलका दिन आज नहीं रहा,
‘नहीं’ में भरती हो गया, ऐसे ही अभी आप और हम यहाँ बैठे हैं,
यह समय भी ‘नहीं’ में भरती हो रहा है । इसको वापस नहीं ला सकते । अतः इसमें ‘नहीं’ ही तत्त्व हुआ, पर मूढ़ताके कारण यह ‘है’ दीखता है । यह ‘है’ क्यों दीखता है ? इसमें एक सत्य परमात्मा है‒‘जासु सत्यता तें ।’
परमात्माके कारण ही इसका होनापन दीखता है । जैसे,
रस्सी होनेसे ही उसमें भ्रमसे साँप दीखता है । अगर रस्सी न हो
तो साँप भी नहीं दीखेगा ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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