(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम इस बातको जानते हैं कि संसार पहले नहीं था और फिर नहीं रहेगा,
फिर भी इसको मानते नहीं । जो जानते
हैं, उसको ही मानने लग जायँ‒यह जाने हुएका आदर है । परन्तु जो जानते हैं, उसको
मानते नहीं‒यह जाने हुएका निरादर है । जाने हुएके निरादरसे ही हम दुःख पा रहे हैं ।
अतः जाने हुएका आदर करें । यह संसार तो रहेगा नहीं, पर इससे लाभ ले लें । मिले हुए पदार्थोंको दूसरोंकी सेवामें
लगा दें‒यही लाभ लेना है । दर्पणमें हम मुख देखते हैं तो उलटा दीखता है । जैसे,
हमारा मुख दक्षिणकी तरफ है तो दर्पणमें हमारा मुख उत्तरकी तरफ
दीखता है । हमारा दायाँ भाग दर्पणमें बायाँ भाग हो जाता है और हमारा बायाँ भाग दर्पणमें
दायाँ हो जाता है । जैसे दर्पणमें उलटा दीखता है,
ऐसे ही यह संसार उलटा दीखता है । अतः जो लोभमें आकर अपने लिये
संग्रह करते हैं, वे अपनी हानि करते हैं । परंतु दीखता
उलटा ही है‒जितना ले लेते हैं,
उतना तो लाभ दीखता है और जितना दे देते हैं, उतनी
हानि दीखती है । अब उलटा ही दीखता है,
इस कारण कही हुई बात भी जँचती नहीं, उलटी
दीखती है । इसलिये कहा है‒
खायो सोई ऊबर्यो, दीन्हौ सोई साथ
।
जसवँत धर पोढाणिया माल बिराने हाथ ॥
दिया हुआ तो हमारे साथ चलेगा और लिया हुआ यहीं रह
जायगा । फिर भी लेनेकी ही चेष्टा होती है, देनेकी नहीं ! हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय,
यह चेष्टा तो होती है,
पर यह चेष्टा नहीं होती कि दूसरोंको दे दें,
दूसरोंका हित कर दें,
दूसरोंका स्वार्थ सिद्ध कर दें । दूसरोंका काम करना बुरा दीखता
है, जब कि बात यह उलटी है । उलटा दीखना बंद हो जाय और सुलटा
दीखने लग जाय‒इसीके लिये हमलोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं ।
न तो मिला हुआ ठहरेगा और न दीखनेवाला ठहरेगा । वहम यह होता है
कि यह तो मिला हुआ है और यह दीख रहा है । ये दोनों ही नहीं रहेंगे । इनमें जो परिपूर्ण
हैं, वे एक परमात्मा ही रहेंगे । उन परमात्माका ही आश्रय लिया जाय,
उनका ही भजन किया जाय,
उनको ही माना जाय, उनका ही चिन्तन किया जाय,
तो निहाल हो जायँगे । अगर मिले हुए
और देखे हुएके लोभमें फँस जायेंगे तो धोखा हो जायगा ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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