‘उपासना’ शब्दका अर्थ है‒पासमें बैठना,
उप+आसना; उपासना दो शब्दोंसे बनता है । उपासनाका विषय कुछ भी हो सकता
है‒जैसे धन, मान, लोक-परलोककी कोई भी वस्तु । जो जिस वस्तुको चाहता है,
उसका मन उस वस्तुके पास रहता है,
उसीकी उपासना होती है;
परंतु वास्तवमें उपासना होनी चाहिये सत्य-तत्त्वकी । प्रकृतिके
कार्यकी उपासना न करके परमात्माकी उपासना करनी चाहिये ।
गीतामें तीन प्रकारकी उपासना कही है‒
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
(१३ । २४)
‘कितने लोग ध्यानयोगके द्वारा परमात्माका साक्षात्कार
करते हैं, कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा
।’ गीतामें उपासनाके तीन मार्ग हैं‒भक्तियोग,
ज्ञानयोग एवं कर्मयोग । सत्य-तत्त्वकी
प्राप्तिके लिये जो किया जाय उसे ‘उपासना’ कहते
हैं । यह सब परमात्मा-ही-परमात्मा
है । वही आदि-मध्य-अन्तमें है‒‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे
मणिगणा इव’ (गीता ७ । ७) । (सूत्रमें मणिगणकी तरह सम्पूर्ण चराचर विश्व मुझमें ही ओत-प्रोत
है ।) सत्-असत् सब कुछ परमात्मा ही है । सत्य-तत्त्वकी ऐसी उपासना भक्तियोगकी पद्धतिसे
उपासना है । सांख्ययोगकी उपासना असत्का त्याग करके,
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।’ (गीता
२ । १६) ‘असत्की सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं ।’
सत्की उपासना की जाती है । कर्मयोगमें भी सत्की उपासना है
। भगवान्ने कहा है‒‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’ (२ ।
४०) ‘इसमें
कृत प्रयत्नका नाश नहीं होता ।’ गीताके १७वें अध्यायके दो श्लोकों (२६-२७) में ‘सत्’
शब्दकी पाँच व्याख्या की है‒‘सद्भावे
साधुभावे च’, ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा’, ‘यज्ञे
तपसि दाने च स्थितिः’ और ‘कर्म चैव तदर्थीयत् ।’
‘सत्’
कहते हैं‒सत्ताका होना, जिसका
कभी नाश नहीं हो, वह सर्वत्र विद्यमान है । यह संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । परंतु उसके आश्रयसे यह
संसार प्रत्यक्ष नाशवान् होनेपर भी सत्य दीखता है । गोस्वामीजीने (मानस,
बालकाण्डमें) कहा है कि‒
जासु सत्यता ते जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥
यह संसार सत्य दीखता तो है, पर सत्य है नहीं । प्रत्येक पदार्थकी
उत्पत्तिके मूलमें एक नित्य तत्त्व होता है,
जिसके आश्रयसे पदार्थ उत्पन्न होता है । उसे प्रकाश देनेकी जरूरत
नहीं है, वह स्वयंप्रकाश है । उसकी सत्यतासे ही सब अनित्य संसार दीख रहा
है । ‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ (मु॰ उ॰ २ । २ । १०) ‘उसीके प्रकाशसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता
है ।’ सांख्ययोगमें असत्को छोड़कर सत्का ही चिन्तन-ध्यान होता है
। असली उपासना उसी तत्त्वके लिये साधनामात्र है ।
बाल्यावस्थामें जो शरीर था,
वह बदल गया । साथी,
सामग्री, भाव, उद्देश्य, इन्द्रियाँ सब बदल गयीं,
पर मैं तो वही हूँ,
यह नहीं बदला । मैं वही हूँ,
यह सत्य है । देश, काल, वस्तु, व्यक्ति सब उस सत्के अन्तर्गत हैं । सत्-तत्त्व ज्यों-का-त्यों
है । हमने असत्में मान्यता कर ली है‒‘कर्ताहमिति मन्यते’
(गीता ३ । २७) (मूर्खतासे) ‘मैं कर्ता हूँ ऐसा
मान लेते हैं ।’ समष्टि शक्तिसे ही समस्त क्रियाएँ हो रही हैं‒‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ (गीता
३ । २७) ऐसी स्थितिमें
‘सम्पूर्ण क्रियाएँ समष्टिकी शक्तिद्वारा हो रही हैं’
ऐसा समझकर ‘नैव किंचित् करोमीति’ (गीता
५ । ८) ‘मैं कुछ नहीं करता हूँ’‒किसी क्रियामें कर्त्तापन और भोक्तापनका भाव न लावें ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे
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