(गत ब्लॉगसे आगेका)
कुछ लोग सोचते हैं कि हम सन्तोंकी चरण-रज ले लेंगे तो हमारा कल्याण हो जायगा; अतः यदि सन्त नहीं लेने देंगे तो छिपकर अथवा चोरीसे ले लेंगे । भाई ! इससे कल्याण नहीं होगा, उद्धार नहीं होगा । अगर उन
(सन्त) की चरण-रजसे
उद्धार
हो जाय तो उस चरण-रजको इकट्ठा
कर पोटली
बाँधकर
कुएँमें
डाल दिया
जाय ताकि जो भी उस जलको
पीयेंगे
उन सबका
उद्धार
हो जायगा; परन्तु
यह बिलकुल
फालतू
(निरर्थक) बात है ।
धूलमें धूल है, अर्थात् धूलमें क्या पड़ा है ! तात्पर्य यह है कि सन्तोंका इतना माहात्म्य है कि उनकी स्पर्श की हुई हवा, चरण-रज आदि परम पवित्र होते हैं । उनके दर्शन भी परम पवित्र करनेवाले होते हैं । पर मूल माहात्म्य तो भाई, उनके
ज्ञानका है ।
सर्वज्ञ मुनिने संक्षेप-शारीरिक-भाष्यमें लिखा है‒
यत्पादपंकजरजःश्रयणं विना मे
सन्नप्यसन्निव परः पुरुषः पुरासीत् ।
यत्यादपंकजरजः श्रयणादिदानीं
नासीन्न चास्ति न भविष्यति भेदबुद्धिः ॥
‘मैंने जबतक उन
महापुरुषोंकी चरण-रज्जीका आश्रय नहीं लिया, तबतक, होता
हुआ
भी,
वह
सच्चिदानन्दघन परमात्मा, नहींकी तरह
था
अर्थात् भगवान् है
कि
नहीं, पता नहीं‒ऐसी
दशा
थी;
परन्तु जब मैंने
उनकी
चरण-रज्जीको स्वीकार किया तो
मालूम
पड़ा
कि
न
भेद-बुद्धि थी, न
है
और
न
होगी
।’
यहाँ
चरण-रज्जीको
स्वीकार
करनेका
तात्पर्य
उनकी अनुकूलताको स्वीकार करना है ।
सन्तोंकी कृपा कब होती है ? उनके मनके अनुकूल बननेसे । जैसे बछड़ा आकर दूध पीने लगता है तो गायके शरीरमें रहनेवाला दूध थनोंमें आ जाता है, ऐसे ही जब कोई श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सन्त-महापुरुषसे प्रश्न करता है तो उनका समस्त ज्ञान बुद्धि, मन और वाणीमें आने लगता है, टपकने लगता है । यह सब उनके
अनुकूल
बननेकी
महिमा है,
धूल अथवा
मिट्टीकी
महिमा
नहीं
है ।
इसलिये भाई ! वे महापुरुष जिस ज्ञानसे बने हैं, उनसे वह ज्ञान लेना चाहिये । जैसे कपड़ेके बाजारमें कपड़ा और साग-पत्तीके बाजारमें साग-पत्ती मिलती है; ऐसे ही वास्तविक तत्त्व तो उस तत्त्वको जाननेवाले सन्त जहाँ हैं, उस बाजारमें ही मिलेगा । चरण-रज लेनेका
तात्पर्य
उस ‘तत्त्व’
को लेनेमें
है,
पर लोग रज्जी
लेनेमें
लगे हुए हैं । अरे !
उनकी
चरण-रज्जीका
इतना
माहात्म्य है तो उन स्वयंका
कितना
माहात्म्य होगा
? उनके
‘ज्ञानका’ कितना माहात्म्य होगा
? वे कितने
विशेष
जानकार
होंगे ? वह जानकारी
हमें
ग्रहण
करनी
चाहिये
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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