श्रीभगवान् और उनके भक्तोंकी महिमा अपार है । इन दोनोंमें भी हमलोगोंके लिये भगवान्की अपेक्षा सन्त-महात्माओंकी महिमा ही विशेष है, क्योंकि वे हमारे प्रत्यक्षरूपसे काम आते हैं । जैसे समुद्र तो बहुत बड़ा है; परन्तु हमें जल बादलोंसे मिलता है, इसलिये हमारे लिये तो बादल ही बड़े हैं । इसी प्रकार हमें तो संत-महात्माओंके द्वारा ही लाभ हुआ है और होता है; इसलिये हमारे लिये संत ही बड़े हैं ।
विभिन्न सम्प्रदायोंमें बड़े-बड़े महापुरुष हुए हैं; उनके द्वारा अनेक मनुष्योंको शिक्षा मिली है जिससे वे मनुष्य विशेषताको प्राप्त हुए हैं । जिन महापुरुषोंसे मानव-जातिको ज्ञान प्राप्त हुआ है, उन महापुरुषोंकी महिमा जितनी गायी जाय, उतनी ही थोड़ी है; ऐसे महापुरुषोंकी चरण-रज्जीका बड़ा महत्त्व है । उनकी
चरण-रजका
माहात्म्य कहनेका
तात्पर्य उन महापुरुषोंकी महिमामें है कि वे जहाँ चलते-फिरते हैं, वहाँकी रेणु भी पवित्र हो जाती है । जब उनके
चरण-स्पर्शमात्रसे रेणु
पवित्र
हो जाती
है, तब
वे स्वयं
कितने पवित्र होते हैं
!
यः सेवते
मामगुणं
गुणात्परं
हृदा कदा वा यदि वा गुणात्मकम् ।
सोऽहं
स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्
पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ॥
(अ॰ रा॰, उत्तरकाण्ड पंचमसर्ग ६१)
(अर्थ) भगवान् राम कहते
हैं
कि
मेरा
सगुण
तत्त्व या
निर्गुण तत्त्वको जाननेवाला भक्त हो‒वह
मेरा
ही स्वरूप है ।
‘सोऽहं’ मैं ही
हूँ
वह
।
वह
संसारमें घूमता-फिरता
है
तो
अपने
चरणोंकी रज्जीसे त्रिलोकीको उसी प्रकार पवित्र करता
है,
जिस
प्रकार सूर्य जिस
प्रान्तमें जाते हैं
उसीमें प्रकाश कर
देते
हैं
।
इस श्लोकमें दृष्टान्त ‘सूर्य’ का दिया है । जैसे जहाँ सूर्य जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, दिन हो जाता है । संत-महापुरुष सूर्यसे भी विलक्षण हैं । सूर्य तो केवल बाहर प्रकाश करता है; किन्तु सन्त-महापुरुषोंद्वारा तो साधारण मनुष्यको भी विलक्षण ज्ञान-रूपी भीतरका प्रकाश प्राप्त हो जाता है । उसके भीतरकी आँखें खुल जाती हैं । मैं क्या हूँ ? कैसा हूँ ? तथा परमात्मा क्या है ? क्या करना चाहिये ? क्या नहीं करना चाहिये
? आदि बातोंका ज्ञान हो जाता है । होश आ जाता है । जैसे कोई आदमी बेहोश हो और उसे अचानक होश आ जाय अथवा कोई गाढ़ नींदसे जाग जाय‒ऐसे ही गाढ़ अज्ञानमें डूबे प्राणीको महान् ज्ञान हो जाता है । इस तरह सन्त-महापुरुषोंकी विशेष कृपा होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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