(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें लोग ममताका त्याग करना नहीं चाहते हैं; प्रत्युत नित्य नयी-नयी ममता-कामना पकड़े लिये जा रहे हैं । यदि ममताका त्याग कठिन मालूम देता है तो नया सम्बन्ध जोड़ना
छोड़ दें । घर छोड़कर साधु हो गये और साधु हो जानेपर चेला-चेलीसे ममताका सम्बन्ध जोड़ने
लगे । ममताका सम्बन्ध
उस एकके साथ जोड़ो, जो सत्य
है; जिसके सिवा अपना और
कोई नहीं है । संत-महात्माओंकी
महिमा इस बातमें है कि वे सबसे सम्बन्ध छुड़ाकर एकमात्र परम पिता परमेश्वरमें लगा दें
। वे भटकते जीवको सत्यके साथ जोड़ दें‒तेरा वह है जो यह कह रहा है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । उसीके नाते सबकी सेवा करो, आदर-सत्कार करो । स्त्री केवल
पतिके नाते ही पतिके परिवारवालोंकी सेवा करती है; इसी तरह उस भगवान्के नाते सबकी सेवा करना है । ‘नातो नेह राम सो मनियत ।’ भगवान्से अपनापन कर लेना है यही ‘उपासना’ है, भगवान्के ‘पास बैठना’ है ।
कर्मयोगके अनुसार ममता, आसक्ति, कामनाका त्याग कर अपने ‘कर्त्तव्यके आचरणद्वारा’ उपासना की जाती
है । ज्ञानयोगके अनुसार ‘परमात्माको जानकर’ उपासना की जाती है । भक्तियोगके अनुसार
‘भगवान्को मानकर’ उपासना की जाती है । ज्ञानयोगके द्वारा जो प्राप्ति होती है, कर्मयोगके द्वारा भी उसीकी प्राप्ति होती है ।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
(गीता ५ । ५)
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।
(गीता
५ । ४)
‘ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परम धाम प्राप्त किया
जाता है, निष्काम कर्मयोगियोंद्वारा
भी वही प्राप्त किया जाता है; क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनोंके
फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है ।’ कर्मयोगमें भी प्रभुको मानकर उपासना होती है । संसारसे मन हटाकर चलना और भगवान्के
पास बैठना उसकी उपासना है । थोड़ी देर जप कर लें,
पाठ-पूजन कर लें‒यह असली उपासना है क्या ?
असली उपासनाका तात्पर्य है, हर
समय उसीमें लगन हो । जैसे परिवारमें हर समय मन लगा रहता है, वैसे
ही हर समय चलते-फिरते परमात्मामें लगन होनी चाहिये । यही सच्ची उपासना है । इसकी सिद्धि
अवश्य होती है । यह मनुष्य-शरीर
इसीलिये मिला है । संसारके लिये मिला होता तो संसारकी सिद्धि हो जाती,
किंतु सिद्धि नहीं हुई । अतः परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही
मनुष्य-शरीर है; उसीकी उपासना करनी चाहिये । उपासनाका प्रभाव छिपाये छिप नहीं
सकता । किसीने कहा है‒
भजन करे पातालमें प्रकट होय आकाश ।
दाबी दूबी नहिं दबे
कस्तुरीकी वास ॥
जिसने परमात्माकी ओर चलना प्रारम्भ कर दिया अथवा
जिसने परमात्माको प्राप्त कर लिया, उसका आचरण बदल जाता है । उसके शरीरमें, बल-बुद्धिमें
अन्तर आ जाता है । उसके प्रभावसे वायुमण्डल वैसा ही बन जाता है, प्रकृति स्वयंको सफल
मानती है । संसारकी चीजें उसके काममें आ जायँ तो अपनेको सफल मानती हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे
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