(गत ब्लॉगसे आगेका)
वे नित्य ज्ञानस्वरूप भगवान् अपने ऊपर योगमायाका परदा रखकर प्रकट
होते हैं, पर भगवान्का दिव्य ज्ञान उससे जरा भी आवृत नहीं होता । प्रेमी
भक्तोंके लिये भी वह परदा नहीं रहता, वे तो उनके चिन्मय स्वरूपका दर्शन कर ही लेते हैं । इस आवरणसे
तो भगवान्की भक्तिसे रहित मूढ़लोग ही उन्हें नहीं जान पाते ।
इस श्लोकमें भगवान्ने अपने निर्गुण-निराकार,
सगुण-निराकार एवं सगुण-साकार-स्वरूपकी एकता की है । भगवान् श्रीकृष्ण
बतलाते हैं कि वह निर्गुण सच्चिदानन्दघन सर्वव्यापी परमात्मा मैं ही हूँ और मैं ही
समय-समयपर साकाररूपमें प्रकट होता हूँ । गीतामें कहा है‒
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
(१४ । २७)
‘उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य-धर्मका और अखण्ड
एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ ।’ यहाँ भगवान्ने अपने जिन-जिन रूपोंका वर्णन किया है,
उनमेंसे अगर एक भी रूपके तत्त्वका ज्ञान हो जाय तो मनुष्य जीवन्मुक्त
और कृतकृत्य हो जाता है । भगवान्ने गीतामें अपने किसी एक रूपको भी जाननेवालेको असम्मूढ‒ज्ञानवान्
और न जाननेवालेको मूढ बतलाया है, यह बात नीचे लिखे उद्धरणोंसे स्पष्ट की जाती है ।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु
सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
(गीता १०
। ३)
यहाँ भगवान्ने अपने ‘अज’‒जन्मरहित रूपको जाननेवाले‒का सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होना बतलाया
है तथा उसे सब मनुष्योंमें ‘असम्मूढ’‒ज्ञानवान् बतलाया
है ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥
(गीता ७ । २५)
यहाँ ‘अज’ नहीं जाननेवालेको मूढ़ कहा है ।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिव्ययम् ॥
(गीता ९ । १३)
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय
ईश्वरः ॥
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन
भारत ॥
(गीता
१५ । १७,१९)
यहाँ भगवान्ने ‘अव्यय’ स्वरूपके जाननेवालेको ‘असम्मूढ’‒ज्ञानवान्
और सर्ववित् बतलाया है ।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो
ममाव्ययमनुत्तमम् ॥
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥
(गीता
७ । २४- २५)
इन श्लोकोंमें ‘अव्यय’ स्वरूपके न जाननेवालेको बुद्धिहीन और मूढ कहा गया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
|