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भोक्तारं यज्ञतपसां
सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
(गीता ५ । २९)
यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
(गीता
१० । ३)
यहाँ ‘सर्वलोकमहेश्वर’ रूपके जाननेवालेको शान्तिकी प्राप्ति बतलायी है और उसे ‘असम्मूढ’ कहा गया है ।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्
॥
(गीता
९ । ११)
यहाँ ‘भूतमहेश्वर’ रूपको न जाननेवालेको मूढ बतलाया है । यहाँ इस चौथे अध्यायके
छठे श्लोकमें वर्णित प्रकृति और योगमाया‒ये दो अलग-अलग तत्त्व हैं । प्रकृति परमात्माकी
एक नित्य दिव्य शक्ति है और उस प्रकृतिके ही एक अविद्यामय अंशको अज्ञान या माया कहते
हैं जो कि प्रकृतिके कार्यरूप तीनों गुणोंवाली है । ज्ञानमार्गी इस प्रकृतिको विद्या
कहते हैं और इस ब्रह्मविद्या‒ अध्यात्मविद्या (गीता १० । ३२) का अवलम्बन लेकर अविद्याका
नाश करके परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा भक्तजन इसे भगवान्की भक्ति‒दैवी
सम्पत्ति कहते हैं, जिसका आश्रय लेकर वे भगवान्के दर्शन करते हैं । वही भगवान्की
ओर ले जानेवाली भगवान्की दैवी प्रकृति है ।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥
(गीता ९ । १३)
इसमें परमात्माकी दैवी प्रकृतिका आश्रय लेनेवालोंको महात्मा
बतलाया है ।
दैवी योगमाया तो बन्धनकारक,
दुस्तर, मोहित करनेवाली और परमात्माकी ओरसे दूर ले जानेवाली है । इसे
ही अविद्या कहते हैं ।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमब्ययम् ॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
(गीता
७ । १३-१४)
इस मायाका आश्रय लेनेवाले लोग उस अव्यय परमात्माको नहीं जान
पाते ।
गीतामें खोज करनेपर यह बात सुस्पष्ट हो जाती है कि यह माया गुणमयी
है । गुण मायासे उत्पन्न नहीं है । इनको तो भगवान्ने प्रकृतिसे उत्पन्न बतलाया है
। यथा‒
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (३
। ५)
विकारांश्च गुणांशैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ (१३
। १९)
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूङ्क्ते प्रकृतिजागणान् ।
(१३ । २१)
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः । (१४ ।
५)
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः । (१८
। ४०)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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