(गत ब्लॉगसे आगेका)
लोग शंका करते हैं कि भगवान्को अवतार लेनेकी क्या जरूरत है ? क्या वे
साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापना संकल्पमात्रसे
नहीं कर सकते ? कर नहीं सकते, यह बात नहीं
। वे तो करते ही रहते हैं फिर अवतार लेनेमें क्या कारण है ?
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
(गीता ४ । ८)
दुष्टोंका विनाश, भक्तोंका परित्राण (रक्षा) और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना, इसके लिये भगवान् अवतार
लेते हैं । दुष्टोंका विनाश करना, भक्तोंकी रक्षा करना । इसका
अर्थ यह नहीं कि दुष्टोंको मार देना और भक्तोंको न मरने देना, पर भक्त भी तो मर जाते हैं । तो रक्षाका अर्थ उनके शरीरोंको ‘है ज्यों कायम
रखना’‒यह नहीं है । इसका अर्थ है ‘उनके भावोंकी रक्षा ।’
भक्तकी दृष्टिमें शरीरका कोई मूल्य नहीं है । वहाँ मूल्य है ‘भगवद्भक्ति’ का । भगवान्की तरफ चलनेवाले मनसुर आदिने फाँसी स्वीकार कर ली हँसते-हँसते । शरीरकी
वहाँ कोई इज्जत नहीं है । इसको तो ‘एकान्तविध्वंसिषु’
कहा है । यह नष्ट होनेवाला ही है, यह तो नष्ट होनेवाली चीज है‒‘पिण्डेषु नास्था भवन्ति तेषु ।’ भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं । उस लीलाको गा-गाकर भक्त मस्त होते रहते हैं । यह बिना अवतारके
नहीं हो सकता । भगवान्की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है । यह सब अवतार होनेसे ही हो
सकता है । तो लोग गा-गाकर संसारसे तरते जाते हैं और तरते ही रहते
हैं । भगवान् इस तत्त्वको जानते हैं । इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते हैं ।
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥
जो आपकी कथामृतको कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदाः’ बहुत देनेवाले हैं तो वे देनेवाले
भी हैं और लेनेवाले भी हैं । मानो सुननेवालोंको देते हैं और सुनकर लेते हैं । सुननेवालोंको
लाभ होता है तो कहनेवालोंको नहीं होता है क्या ? होता ही है ।
इस वास्ते भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, तो भक्तोंकी रक्षा
क्या है ?
भक्तोंका धन हैं भगवान् । उन भगवान्की लीला कहते, सुनते, विचार करते रहें‒यही वास्तवमें भक्तोंकी
रक्षा है और इस वास्ते ही हनुमान्जीको ‘प्रभु वरित्र सुनिबे को रसिया’
कहा है । भगवान्का चरित्र सुननेके लिये वे रसिया हैं रसिया ।
वाल्मीकिरामायणमें आता है कि जब भगवान् दिव्य साकेतलोक जाने लगे तो हनुमान्जीने कहा मैं साथ नहीं चलूँगा । जबतक आपकी कथा भूमण्डलपर रहेगी, मैं भूमण्डलपर रहूँगा । जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी,
वहाँ-वहाँ सुनूँगा । भगवान्को छोड़कर कथाका लोभ लगा उनको ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’
पुस्तकसे
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