(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्को देखनेसे
गरुड़जीको मोह हो गया । भगवान्को देखनेसे काकभुशुण्डिजीको मोह
हो गया, भगवान्को देखनेसे नारदजीको मोह
हो गया । भगवान्को देखनेसे सतीको मोह हो गया और वह रामायण सुननेसे
मिट गया । भगवान्को देखनेसे गरुड़जीको मोह हो गया और चरित्र
सुननेसे मोह दूर हो गया । यह तो जानते ही हैं आप ! तो भगवान्से
बढ़कर भगवान्के चरित्र हैं । यही
भक्तोंकी रक्षा है कि इस चर्चाको करते रहें । अपने भाई लोग जो कि पारमार्थिक मार्गमें
चलना चाहते हैं, उनका विचार रहता है कि अच्छे महात्माओंका संग
करें । ऊँचे दर्जेके संत-पुरुष हों तो उनका हम संग करें । यह
भाव रहता है और यह ठीक ही है उचित ही है ! परन्तु इसी अटकलको
महात्मा पुरुष लगा लें अपने लिये तो वे अपनेसे ऊँचोंका संग करेंगे । वे उनसे ऊँचोंका,
भगवान्का ही संग करेंगे । फिर हमारे साथ माथा-पच्ची कौन करेगा !
भगवान् अवतार लेते हैं । अवतार नाम है ‘उतरना’ । अवतार तो नीचे उतरनेको कहते हैं
। तो भगवान् नीचे उतरते हैं, हम जहाँ हैं वहाँ । जैसे बालकको आप पढ़ाओगे तो आप भी ‘क’ ‘क’ कहोगे
और हाथसे ‘क’ लिखोगे तो यह क्या हुआ ? आपका बालककी अवस्थामें
अवतार हुआ । उस अवस्थामें न उतरें तो आप बालकको कैसे सिखायेंगे ? कैसे समझायेंगे ? अब उसको व्याकरणकी बात समझाने लगें
तो बच्चा क्या समझेगा ? वहाँ तो ‘क’ कहते रहो । हाथसे लिखाते
रहो कि ऐसा ‘क’ होता है तो उसके समकक्ष होकर सिखाते हैं । ऐसे भगवान् अवतार लेकर कहते
हैं‒कैसे करो ? कि हम करते हैं जैसे करो । ‘रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्’ ऐसे करना चाहिये,
ऐसे नहीं करना चाहिये । जैसे मैं अवतार लेकर लीला करता हूँ । ऐसे तुम
करो और न करो तो सुनो बैठे-बैठे; क्योंकि
‘श्रवणमंगलम्’ भगवान्की कथा
श्रवणमात्रसे भी मंगल देनेवाली है ।
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् वौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्
।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात् पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥
जिनकी तृष्णा दूर हो गयी है, ऐसे जो निवृत्ततर्ष हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं किंचिन्मात्र भी । वे तो रात-दिन गाते
ही रहते हैं, करते ही रहते हैं । सनकादिक निर्लिप्त ही प्रकट
हुए और चारों ही समान अवस्थावाले हैं, छोटी अवस्था-पाँच वर्षकी आयुवाले हैं । तीन श्रोता हो जाते हैं, एक
वक्ता हो जाते हैं और भगवान्की कथा करते हैं । अब उनके क्या
जानना बाकी रह गया ? ‘चरित सुनहिं तजि ध्यान’, ध्यानको छोड़ करके भगवान्के चरित्र सुनते हैं । ऐसे क्यों करते हैं ?
कि भाई ! ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान् हैं ही ऐसे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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