(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक दुःख गया तो दूजा तैयार । दूजा गया तो तीजा तैयार । इस प्रकार दु:ख-पर-दुःख पनपता ही रहता है; क्योंकि दुःखालय है यह । दु:ख-ही-दुःख होता है । वस्त्रालय
होता है, औषधालय होता है । ऐसे ‘दुःखालयमशाश्वतम्’
दु:खालयमें सुख ढूँढ़ते हैं । दु:खालयमें सुख कैसे मिलेगा भाई, दुःखालयमें तो दुख-ही-दुःख है । ‘अनित्यमसुखं लोकमिमं
प्राप्य भजस्व माम् ।’ सुख इसमें है नहीं भैया ! यह दुःखालय
है । ‘इमं प्राप्य भजस्व माम्’ तू मेरा भजन कर ले,
पर भजन भगवान्का न करके भजन दुःखोंका ही करते
हैं कि भगवान्ने हमारा दुःख नहीं मिटाया । हमारेको बेटा नहीं
दिया, हमारेको धन नहीं दिया, हमारेको नीरोगता
नहीं दी, हमारेको मान-सत्कार नहीं दिया,
हमारी प्रशंसा नहीं की, भगवान्ने ऐसा नहीं किया‒यह चाहना क्या है ? अधिक दुःखकी चाहना है । भगवान् कहते हैं, ‘तेरेको दिया उतना बहुत काफी है । अलग
और क्यों पकड़ता है ?’ यह कहता है, ‘इतना नहीं और दुःख होना चाहिये
। धन और हो जाय तो सुखी हो जायँ ।’ और हो जाय तो सत्संग भी नहीं करेगा । फिर उसमें
ऐसा लिप्त हो जायगा कि भजन-ध्यान ही छूट जायगा । क्या करें ?
काम-धन्धा ज्यादा आ गया, मील और खुल गयी,
अब समय नहीं मिलता, भजन करनेके लिये । विमुख होनेके
लिये यह चेष्टा कम नहीं करता है । ठाकुरजी विमुख होने नहीं
देते । इसके मनकी नहीं होने देते । इसके मनकी होवे तो यह कितनी ही खुराफात (उद्दण्डता) करे । भगवान्
करने नहीं देते । इसमें यह हो जाय नाराज । जैसे पतंगे
आग सुलगनेपर उसके भीतर दौड़कर प्रविष्ट होते हैं । उनको अलग कर देता है कोई तो पतंगे
बहुत नाराज होते हैं । अगर उनका वश चले तो मुकद्दमा करें उसपर कि हमारेको आग नहीं लेने
देते । आग बन्द करनेवाला उनपर करता है दया कि ये आगमें खतम हो जायँगे, परन्तु आड़ लगना उनको अच्छा नहीं लगता । ऐसे संसारके भोगोंमें, ऐश्वर्यमें रात-दिन लगे हैं । आड़ लग जाय तो उसके साथ
लड़ाई करेंगे कि मेरेको क्यों नहीं जलने दिया ? हम तो पड़ेंगे भीतर,
कूदकर । ‘रहने दे भैया, कुछ दिन जी तो जा ।’ ‘ना
।’ ऐसी दशा हो रही है लोगोंकी । ऐसी दशासे बचानेके लिये भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ो, पर जोड़ते हैं नाशवान् पदार्थोंके
साथ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे |