(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यने संसारमें ‘यह अपना है और यह अपना नहीं है’‒इस
प्रकार दो विभाग किये हुए है । वह जिसे अपना मानता है, उसीकी चिन्ता उसे होती
है । जिस मकानको हमने अपना मान लिया है, उसीकी चिन्ता होती है
। जिस मकानको अपना नहीं माना है, वह धराशायी हो जाय तो भी उसकी
चिन्ता नहीं होती । वास्तवमें चिन्ता मकानकी नहीं, अपितु अपनेपनकी होती है । संसारमें प्रतिदिन कई मनुष्य मरते हैं, कई पशु-पक्षी मरते हैं, पर उनकी चिन्ता हमें नहीं होती,
जबकि आरम्भको देखा जाय तो एक परमात्मासे ही सबकी उत्पत्ति होनेसे सब
भाई-बन्धु ही है ! अतः जिन-जिनको अपना माना है, उन-उनकी ही
चिन्ता होती है । जिन्हें अपना नहीं माना है, वे मर जायँ तो भी
चिन्ता नहीं होती । जबतक लड़कीका विवाह नहीं होता, तभीतक आपको
उसकी चिन्ता रहती है । विवाह होनेके बाद वह लड़की आपके पास बैठी हो, तब भी उसकी चिन्ता नहीं होती । लड़की भी वही है और आप भी वही है । लड़कीके प्रति
आपका वात्सल्य भी वही है । पर अब चिन्ता इसलिये नहीं होती कि अब उसे आप अपनी नहीं मानते
। संसार भी कन्याके समान है । इसे भगवान्के हाथ सौंप दें, तो सारी
चिन्ताएँ मिट जायँ । भगवान् भी राजी हो जायँ, आप भी राजी हो जायँ
और सृष्टि भी राजी हो जाय !
स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और संसार प्रतिक्षण
बदलनेवाला है । अतः वास्तवमें संसारसे सम्बन्ध न होनेपर भी
उससे जो सम्बन्ध मान रखा है, उसमें खास कारण यह है कि उससे सुख लेते हैं और उससे सुखकी आशा करते है‒यही
खास बीमारी है । इस बीमारीको मिटानेका उपाय है‒संसारसे सुख न लें, अपितु उसे सुख दें । बस, इतनी ही बात है । संसारके पदार्थोंका उपयोग भोगबुद्धिसे न करें, अपितु शरीर-निर्वाहमात्रके लिये करें । संसारसे जो सुख
लेना चाहते है, वह (सुख) दुःखोंका कारण है‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय
एव ते ।’ (गीता ५ । २२)
। दुःखोंके कारणको तो छोड़े नहीं और दुःखसे छूटना चाहें‒यह कैसे होगा
? इसलिये यदि दुःखोंसे छूटना हो तो सुख लेनेकी इच्छा छोड़नी
ही पड़ेगी, नहीं तो दुःखोंसे
कभी छूट नहीं सकते । वहम तो सुखका रहेगा, पर पाना पड़ेगा
दुःख । इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं । अतएव घरसे लेकर बाहरतक सबको सुख पहुँचाना
है । सबको सुखी करना तो हमारे वशकी बात नहीं है, पर सबको
सुखी करनेका भाव बनाना हमारे वशकी बात है । यदि साधकके हृदयमें प्राणिमात्रके हितका
भाव रहेगा तो उसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सुगमतापूर्वक हो जायगी‒
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते
रताः ॥
(गीता १२ ।
४)
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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