Aug
27
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
प्रवचन‒५


(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यने संसारमें ‘यह अपना है और यह अपना नहीं है’‒इस प्रकार दो विभाग किये हुए है । वह जिसे अपना मानता है, उसीकी चिन्ता उसे होती है । जिस मकानको हमने अपना मान लिया है, उसीकी चिन्ता होती है । जिस मकानको अपना नहीं माना है, वह धराशायी हो जाय तो भी उसकी चिन्ता नहीं होती । वास्तवमें चिन्ता मकानकी नहीं, अपितु अपनेपनकी होती है । संसारमें प्रतिदिन कई मनुष्य मरते हैं, कई पशु-पक्षी मरते हैं, पर उनकी चिन्ता हमें नहीं होती, जबकि आरम्भको देखा जाय तो एक परमात्मासे ही सबकी उत्पत्ति होनेसे सब भाई-बन्धु ही है ! अतः जिन-जिनको अपना माना है, उन-उनकी ही चिन्ता होती है । जिन्हें अपना नहीं माना है, वे मर जायँ तो भी चिन्ता नहीं होती । जबतक लड़कीका विवाह नहीं होता, तभीतक आपको उसकी चिन्ता रहती है । विवाह होनेके बाद वह लड़की आपके पास बैठी हो, तब भी उसकी चिन्ता नहीं होती । लड़की भी वही है और आप भी वही है । लड़कीके प्रति आपका वात्सल्य भी वही है । पर अब चिन्ता इसलिये नहीं होती कि अब उसे आप अपनी नहीं मानते । संसार भी कन्याके समान है । इसे भगवान्के हाथ सौंप दें, तो सारी चिन्ताएँ मिट जायँ । भगवान् भी राजी हो जायँ, आप भी राजी हो जायँ और सृष्टि भी राजी हो जाय !

स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और संसार प्रतिक्षण बदलनेवाला है । अतः वास्तवमें संसारसे सम्बन्ध न होनेपर भी उससे जो सम्बन्ध मान रखा है, उसमें खास कारण यह है कि उससे सुख लेते हैं और उससे सुखकी आशा करते है‒यही खास बीमारी है । इस बीमारीको मिटानेका उपाय है‒संसारसे सुख न लें, अपितु उसे सुख दें । बस, इतनी ही बात है । संसारके पदार्थोंका उपयोग भोगबुद्धिसे न करें, अपितु शरीर-निर्वाहमात्रके लिये करें । संसारसे जो सुख लेना चाहते है, वह (सुख) दुःखोंका कारण है‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता ५ । २२) । दुःखोंके कारणको तो छोड़े नहीं और दुःखसे छूटना चाहें‒यह कैसे होगा ? इसलिये यदि दुःखोंसे छूटना हो तो सुख लेनेकी इच्छा छोड़नी ही पड़ेगी, नहीं तो दुःखोंसे कभी छूट नहीं सकते । वहम तो सुखका रहेगा, पर पाना पड़ेगा दुःख । इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं । अतएव घरसे लेकर बाहरतक सबको सुख पहुँचाना है । सबको सुखी करना तो हमारे वशकी बात नहीं है, पर सबको सुखी करनेका भाव बनाना हमारे वशकी बात है । यदि साधकके हृदयमें प्राणिमात्रके हितका भाव रहेगा तो उसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सुगमतापूर्वक हो जायगी‒

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
                                                 (गीता १२ । ४)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे