(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारिक वस्तुएँ केवल सदुपयोग करनेके
लिये हैं, आश्रय लेनेके
लिये नहीं । आश्रय लेनेसे ही उनका दुरुपयोग होता है । रुपये खर्च करनेके लिये ही है । अपने
या दूसरेके लिये खर्च करनेके अतिरिक्त रुपये और किस काम आयँगे ? रुपयोंके संग्रहसे
अभिमान, आसक्ति, प्रमाद आदि ही बढ़ते है,
पर उनका संग्रह करके मनुष्य फँस जाता है । इसी प्रकार संसारके
सब पदार्थ सदुपयोग करनेके लिये ही है । उन्हें अपने लिये मानकर मनुष्य मुफ्तमें बँध
जाता है । पदार्थ तो अपने पास सदा रहते नहीं, केवल बन्धन-बन्धन रह जाता है ।
सम्बन्ध सदा दोमें ही होता है । पिता-पुत्र, पति-पत्नी आदिमें दोनों ओरसे (दोतरफा)
सम्बन्ध होता है अर्थात् पिता कहता है कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र
कहता है कि यह मेरा पिता है, इत्यादि । परंतु शरीर, धन-सम्पत्ति आदि जड़ वस्तुओंके साथ सम्बन्ध केवल हमारी
ओरसे ही (एकतरफा) होता है अर्थात् हम ही
कहते है कि शरीर मेरा है, धन-सम्पत्ति मेरी
है; पर शरीर, धन-सम्पत्ति आदि वस्तुएँ कभी
हमें यह नहीं कहतीं कि तुम हमारे हो या हम तुम्हारे है । इन
वस्तुओंसे हम अपना जो सम्बन्ध मान लेते है,
वह सम्बन्ध ही बन्धनका खास कारण है । इससे भी अधिक आश्वर्यकी बात यह
है कि वस्तुके न रहनेपर भी उससे सम्बन्ध मानते रहते हैं ! सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! जैसे
पतिका देहान्त हुए कई वर्ष बीत जानेपर भी विधवा खी अपनेको उसीकी पत्नी मानती रहती है
। वस्तुके रहते हुए भी हम उससे अपना सम्बन्ध तोड़ सकते हैं, फिर
वस्तुके न रहनेपर तो उससे सम्बन्ध रहना ही नहीं चाहिये । वस्तुसे
अपना जो सम्बन्ध दीखता है, वह
केवल उस वस्तुके सदुपयोग- (सेवा-)
के लिये ही है, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं
।
यदि मनुष्य संसारसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर दे तो
वह निहाल हो जाय ! मनुष्यका वास्तविक सम्बन्ध परमात्माके साथ
है, जो नित्यसिद्ध है । अतः साधकको
दृढ़तापूर्वक यह मान लेना चाहिये कि ये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुएँ मेरी नहीं
है । मेरे तो केवल भगवान् ही हैं‒‘मेरे
तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।’
उस नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वको उद्योगसाध्य (परिश्रमसाध्य या पुरुषार्थसाध्य)
मान लेना भूल है । उद्योगसाध्य वस्तु बनावटी
होती है । परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति बनावटी नहीं है, अपितु वास्तविक है; उसमें हमारी स्थिति स्वतः है । परमात्माके सिवा सब कुछ
‘पर’ है । ‘पर’- (संसार-) के अधीन होना
पराधीनता है । उद्योग इतना ही है कि पराधीनताको त्याग दें
अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लें । जो निरन्तर हमें छोड़ता चला जा रहा है, उसीको छोड़ना है‒यही साधन है । जो सदासे विमुख
है, उस संसारसे ही विमुख होना है और जो सदासे सम्मुख है,
उस परमात्मतत्त्वके ही सम्मुख होना है‒
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं
।
जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं
॥
(मानस ५ ।
४३ । १)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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