(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें तो हम मुक्त ही है, पर द्वन्द्वोंको अपना मान
करके फँस जाते है‒
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे
यान्ति परंतप ॥
(गीता ७ ।
२७)
इच्छा (राग) और द्वेष,
हर्ष और शोक‒इन द्वन्द्वमोहसे मोहित होकर इनसे परे उस परमात्माको नहीं
जानते । ‘सर्गे यान्ति’ का मतलब‒आरम्भमें ही यह जीव
मोहको प्राप्त हो जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है । बदलनेवालेमें स्थित न होकर; अपने स्वरूपमें जो कि सम्पूर्णको
जानता है, स्थित हो जायँ और जाननेमें आनेवाली तथा बदलनेवाली वस्तुके
साथ न बदलें अर्थात् उसके साथ अपनी एकता न मानें तो हमारी स्थिति स्वतः स्वरूपमें है
। स्वतः स्वरूपमें स्थितिका नाम है‒जीवन्मुक्ति । पर स्वतः
रहनेवालेके साथ न रहकर बदलनेवालेके साथ मिल जाते हैं, इसका नाम है‒बन्धन । बन्धनको हम जब चाहें तब छोड़ दें और जब चाहें तब पकड़ लें । इसमें हम पराधीन
नहीं हैं, स्वाधीन हैं । बन्धन पकड़कर बन्धनमें कभी स्थित रह नहीं
सकते और स्वरूपसे विमुख होकर स्वरूपसे अलग कभी रह नहीं सकते; क्योंकि बन्धन तो मिटते रहते हैं, हम नये-नये पकड़ते रहते हैं और हमारा जो स्वरूप है, वह ज्यों-का-त्यों ही रहता है, कभी बदलता
नहीं । स्वरूपमें हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है । स्वतःसिद्ध
स्थितिका आदर न करके परतः स्थितिका, जो बदलती रहती है, आदर करते हैं‒महत्त्व देते है;
इसीसे जन्म-मरणमें भटकते हैं और दुःख पाते हैं
।
जब हम बदलनेवालेके साथ न रहकर, जो सम्पूर्ण बदलनेवालेको
जानता है, उसमें स्थित हो जायँ तो हम अभी मुक्त हैं । मुक्तिके लिये भविष्य नहीं होगा । अमुक चीज नहीं है,
अमुक अवस्था नहीं है, अमुक परिस्थिति नहीं है तो
वह समय पाकर होगी । परन्तु यह समय पाकर नहीं होगा । यह समयसे अतीत है और सब समयमें
है, किसी देशमें नहीं है और सम्पूर्ण देशोंमें है, किसी वस्तुमें नहीं है और सम्पूर्ण वस्तुओंमें है । देश काल, वस्तु, व्यक्तिसे सर्वथा अतीत होते हुए भी सबमें परिपूर्ण
है । उसमें स्थित होना स्वरूपमें स्थित होना है ।
ज्ञानीकी भी वृत्तियाँ बदलती हैं‒‘प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।’ (गीता १४
। २२) अर्थात् तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषमें भी प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहकी वृत्तियाँ होती हैं । बदलना इनका स्वभाव है और न बदलना
हमारा स्वभाव है । उस स्वरूपमें हम स्वतः-स्वाभाविक स्थित है
। केवल प्रकृतिमें स्थित नहीं होना है ।
अब कोई प्रश्र करे कि यह बात समझमें तो आती है पर टिकती
नहीं । तो उसका उत्तर यह है कि वास्तवमें यह बात मिटती ही नहीं, प्रत्युत निरन्तर रहती
है; क्योंकि यह बात टिकती नहीं‒इसे तो हम जानते ही है । ‘टिकती
नहीं’‒यह प्रकृति है और ‘जानते है’‒यह स्वरूप है । प्रकृतिके
साथ मिलें नहीं, इतनी ही बात
है । वह तो मिटती ही है और स्वरूप टिकता ही है ।
यह टिकती नहीं‒इसे जाननेवाला भी मिटता है क्या ? यदि मिटता है तो जानता
कौन है ? मिटनेको जाननेवाला न रहे तो मिटनेको जानेगा कौन ? प्रकृति
परिवर्तनशील है । वह तो बदलेगी ही । जाग्रत् होगा, स्वप्न होगा,
सुषुप्ति होगी, ठीक होगा, बेठीक होगा, अनुकूल होगा, प्रतिकूल
होगा‒यह तो सदा ही होगा । पर इसे जाननेवालेमें क्या फर्क पड़ा ? हम बदलनेवालेमें स्थित न हों; बदलनेवालेकी परवाह न करें । हम अपने स्वरूपमें
ही स्थित रहें । अपने स्वरूपकी परवाह करनी है,
उससे च्युत नहीं होना है । यह निश्चय हम पक्का रखें । फिर इसमें गलती
नहीं होगी । इसपर जितना टिक जायँ, उतना ही लाभ होगा ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
|