बिलकुल अनजानपनेका नाम अज्ञान नहीं
है और पूरी जानकारीका नाम भी ज्ञान नहीं है । कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते‒उसका
नाम अज्ञान है अर्थात् अधूरे ज्ञानको अज्ञान कहते हैं । सर्वथा ज्ञानके अभावको अज्ञान नहीं
कहते । जैसे पत्थरको कोई अज्ञानी नहीं कहता; क्योंकि ज्ञान है ही नहीं उसमें । दूसरा
अज्ञानी वह है‒जो जानता है, पर मानता नहीं है । यदि वह जैसे जानता
है, वैसे ही मान ले और वैसे ही कर ले तो उसका अज्ञान बिलकुल दूर
हो जायगा । इसमें न किसीके पास जानेकी आवश्यकता है, न सीखनेकी ।
मनुष्य क्या जानता है । यह जानता है कि शरीर, कुटुम्ब, संसार सब-के-सब पहले नहीं थे और
फिर नहीं रहेंगे । परंतु मैं पहले भी था और शरीरके बाद भी रहूँगा । परन्तु इस बातको
हम मानते कहाँ हैं ? हम शरीर और संसारको रखना चाहते हैं । हम
चाहते हैं कि शरीर नीरोग रहे, धन-सम्पत्ति
आ जाय, आदर-सत्कार हो । परन्तु कौन नहीं
जानता कि जिस शरीर और नामको लेकर हम यह सब चाहते हैं, वह शरीर
और नाम पहले भी था, पर वह आज याद ही नहीं है, ऐसे ही यह शरीर और नाम भी याद नहीं रहेगा जिसके लिये रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं । इसका नाम अज्ञान है । जो कुछ करो; दूसरोंके लिये
करो, संसारके लिये करो । संसारसे मेरेको
कुछ नहीं मिलेगा‒यह पक्का सिद्धान्त मान लें । क्योंकि मैं नित्य हूँ और संसार अनित्य
है । संसारसे मेरेको कुछ मिल सकता है‒यह सोचना ही अज्ञान है । फिर भी संसारको
प्राप्त करनेके लिये उद्योग करते हैं रात-दिन । परन्तु जो अपना
है और मिल सकता है, उसके लिये उद्योग नहीं करते । यह एकदम पक्की,
सच्ची, सिद्धान्तकी बात है ।
अब एक बात और बतावें । आप ध्यान देकर सुनें, समझें और उसमें शंका
हो तो पूछें । मनुष्यके भीतर इच्छा होती है । उस इच्छाके दो भाग होते हैं । एक होती
है‒कामना (इच्छा) और एक होती है‒आवश्यकता
। उदाहरणके लिये, जैसे भूख लगी तो भूखमें खाद्य पदार्थ
(भोजन) की आवश्यकता है, जिससे प्राण रह सकते हैं
। ऐसे ही प्यासमें जलकी आवश्यकता है । परंतु कामना या इच्छा क्या है ? इच्छा है कि भोजन बढ़िया हो, मीठा हो, स्वादिष्ट हो, जल ठण्डा हो, मीठा
हो । भूख बातोंसे नहीं मिटेगी । वह तो खानेसे मिटेगी; परन्तु
इच्छा विचारसे मिट जायगी । जैसे अमुक वस्तु स्वादिष्ट है, पर
कुपथ्य है । अतः नहीं खायेंगे; क्योंकि इससे रोग बढ़ सकता है ।
यह तो एक दृष्टान्त हुआ ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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