(गत ब्लॉगसे आगेका)
मूलमें बात यह है कि जैसे शरीरमें भोजनकी
आवश्यकता है, ऐसे ही स्वयंको परमात्माकी आवश्यकता है । संसारकी तो मात्र इच्छा
है, आवश्यकता है ही नहीं । स्वयंको न तो धनकी आवश्यकता है, न अन्नकी आवश्यकता
है, न शरीरकी आवश्यकता है, न कुटुम्बकी
आवश्यकता है, न संग्रहकी आवश्यकता है, न
भोगोंकी आवश्यकता है । इस स्वयंको परमात्माकी आवश्यकता है । क्योंकि यह परमात्माका
अंश है‒
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः
सनातनः ।
(गीता १५ ।
७)
इसे परमात्माके अतिरिक्त और कोई आवश्यकता नहीं । परन्तु
इच्छाओंमें इतना फँसा हुआ है कि इच्छा कभी पूरी होती नहीं, और आवश्यकता जो पूरी
होनेवाली है, उसे जागृत करता नहीं, अतः
हरदम दुःख पाता है । वास्तवमें आवश्यकता एक होती है । भगवान्ने कहा है‒‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका
।’ (गीता २ । ४१) । अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्
॥
(गीता २ ।
४१)
परन्तु अव्यवसायियोकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं अर्थात्
उनकी अनन्त इच्छाएँ होती हैं । आवश्यकता क्या है ? संसारकी इच्छाका त्याग करना और परमात्माकी
प्राप्ति करना । परंतु इच्छाएँ अनेक होती हैं । जैसे हलुवा मिल जाय, पूड़ी मिल जाय, चटनी मिल जाय, धन
हो जाय, परिवार हो जाय, मान-सत्कार मिल जाय आदि । परन्तु आवश्यकता होगी कि पेट भरना है; फिर साग-पत्ती ही क्यों न हो ! ऐसे ही मनुष्यको आवश्यकता परमात्मतत्त्वकी है,
उसके बिना आवश्यकता मिटेगी नहीं । परन्तु इच्छा कभी मिटेगी नहीं । ज्यों-ज्यों
इच्छाकी पूर्ति करेगा त्यों-त्यों इच्छाएँ बढ़ेगी । इनका कभी अन्त
नहीं होगा । इनकी पूर्ति असम्भव है ।
इच्छाओंका त्याग और आवश्यकताकी पूर्ति करनी होगी । चाहे
तो आवश्यकताकी पूर्ति कर दो तो इच्छाएँ मिट जायँगी । चाहे इच्छाओंको मिटा दो तो आवश्यकताकी
पूर्ति हो जायगी । दोनोमेंसे एक कर लो तो दोनों पूरी हो जायँगी । संसारकी इच्छाओंका
त्याग कर दें तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी । सर्वव्यापक परिपूर्ण परमात्मा
कैसे दूर हो सकते हैं ? सर्वसमर्थ परमात्मामें हमसे दूर होनेकी सामर्थ्य
नहीं है । केवल संसारकी इच्छा होनेके कारण उस सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्ति नहीं
हो रही है । यदि इच्छाएँ सर्वथा मिट जायँ तो उसकी प्राप्ति तत्काल हो जाय ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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