(गत ब्लॉगसे आगेका)
उसकी प्राप्ति वह परम लाभ है कि जिसके बाद और कोई लाभ
हो सकता है‒यह माननेमें भी नहीं आता । और जिसमें स्थित होकर मनुष्य गुरुतर दुःखसे भी
चलायमान नहीं होता‒
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि
विचाल्यते ॥
(गीता ६ ।
२२)
उसकी प्राप्ति होनेपर परम शान्ति तथा परम आनन्द ही रहता
है । उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । मनुष्य इन इच्छाओंके कारण ही दुःख पाता है । ये इच्छाएँ महान् अनर्थका कारण हैं । जबतक यह पृथ्वी रहेगी, आप कितने ही विद्वान्
बन जाओ, कितने ही धनवान् बन जाओ, कितने
ही बलवान् हो जाओ, कितना ही आदर, मान-सम्मान मिल जाय, आपको इन्द्र और ब्रह्माका पद मिल जाय
तो भी आपको शान्ति मिलेगी नहीं । यह एकदम सच्ची बात है, सबके लिये । साधु हो चाहे गृहस्थ,
भाई हो या बहिन । जबतक परमात्माकी प्राप्ति
नहीं होगी, तबतक शान्ति मिलेगी
नहीं, तृप्ति होगी नहीं; क्योंकि अविनाशीकी
तृप्ति विनाशी संसारसे कैसे हो जायगी ? यह असम्भव बात है । यदि आवश्यकता और इच्छाको ठीक-ठीक समझकर आवश्यकताकी पूर्ति
की जाय तो सब काम ठीक हो जाय । आवश्यकताकी पूर्ति अवश्य होनेवाली है और इच्छा निश्चय
ही मिटनेवाली है । जैसे बचपनमें खिलौनोंकी इच्छा थी; परन्तु अब
होती है क्या ? इसी प्रकार ठीक वैराग्य होनेपर रुपयोंकी आवश्यकता
रहती है क्या ? संग्रह, भोगकी इच्छा रहती
है क्या ? तो पुरानी इच्छाएँ मिटती रहती हैं, परन्तु नयी जागृत होती रहती हैं । इच्छा होती है कि मोटर हो जाय । फिर मोटर
रखनेको गैरेज होना चाहिये, तेल चाहिये, ट्यूब-टायर, पुर्जे चाहिये आदि
। इच्छाएँ बढ़ती ही रहेंगी । ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’
इनका अन्त तभी होगा, जब आवश्यकताकी पूर्ति हो जायगी अर्थात् परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति हो जायगी ।
सबसे पहले जितने भाई, बहिन यहाँ हैं; अपनेसे पूछें कि मैं क्या
चाहता हूँ । हममेंसे बहुतोंको तो इस बातका ज्ञान ही नहीं है कि हम क्या चाहते हैं !
कोई धन चाहता है, कोई पुत्र चाहता है, कोई
मान, आदर चाहता है, परन्तु जिसे कभी चाहते हैं, कभी नहीं चाहते, वह हमारी असली चाहना नहीं । हमारी चाहना तो सदा रहेगी, चाहे रात हो चाहे दिन हो,
सुख हो अथवा दुःख । सम्पत्ति मिले चाहे विपत्ति मिले । वही हमारी चाह
या आवश्यकता है । कामना हमारी चाह नहीं । वह तो शरीर, इन्द्रियों,
मन, बुद्धि, प्राणकी चाह
है, हमारी नहीं है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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