(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब प्रश्र उठता है कि यह ‘ईस्वर
अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥’ होकर बँध कैसे गया ? तो इसका उत्तर है
कि यह इसलिये बँधा कि इसने संसारकी इच्छाको मुरव्यता दे दी और परमात्माकी आवश्यकताको
भूल गया । यह बात एकदम पक्की और सच्ची है । हमें बहुत-सी बातें
पुस्तकोंसे मिली हैं और इसके सिवाय कभी-कभी बातें स्वयं पैदा
हो जाती हैं । एक बारकी बात है कि गीताभवन ऋषिकेशमें प्रवचन दे रहा था कि मनमें आया
कि ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ यह क्या बात है ? जैसे
दस रुपयेवालेको सौ रुपयेकी इच्छा होती है, सौ रुपये-वालेको हजारकी
इच्छा होती है और हजार मिलनेपर दस हजारकी होती है । तो उत्तर आया कि रुपया स्वीकार
करनेसे रुपयेकी इच्छा पैदा हुई । रुपयेका महत्त्व अन्तःकरणमें आया, तब रुपयेकी इच्छा पैदा हुई । यदि रुपयेकी इच्छा न करें, तो इच्छा बढ़ेगी नहीं । ऐसे ही पढ़ाईकी इच्छा उसे होती है जो कुछ पढ़ा-लिखा होगा और पढ़ना चाहता है । जो पढ़ा-लिखा नहीं और पढ़ना
नहीं चाहता, उसको पढ़ाईकी चाहना कभी नहीं होती । उसके पढ़ाईकी कमी
नहीं है । पढ़े-लिखे आदमीके ही पढ़ाईकी कमी है । इसी प्रकार रुपये-पैसेवालोंके ही रुपयेकी कमी है । जिसके पास रुपया है नहीं और रुपये-पैसोंकी इच्छा नहीं है; उसे रुपयोंकी कमी नहीं खटकती । अतः संसारकी इच्छाके कारण ही अभाव और कमी है । अब प्रश्र
है कि इस जड़तासे, इन इच्छाओंसे कैसे छूटें ? तो उत्तर है कि मनुष्यका
जड़तासे सम्बन्ध है नहीं, इसने सम्बन्ध मान लिया है । और यह चेतनका
जड़के साथ सम्बन्ध ही अनर्थका हेतु है । यह मूल बात है । भगवान्ने मनुष्यको स्वतन्त्रता दी है ।
नरक स्वर्ग अपबर्ग
निसेनी ।
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
मनुष्य नरक, स्वर्ग और चौरासी लाख योनियोंमें जा सकता
है, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति प्राप्त कर सकता है । मनुष्यने उस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया,
इस कारण फँस गया । और यदि अब यह स्वतन्त्रताका सदुपयोग करे, आवश्यकताकी पूर्ति करे और इच्छाओंका त्याग करे, तो बिलकुल
ठीक काम हो जाय, इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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